Places to Visit

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Brij Raj Swami Temple in Nurpur Fort

The famous Brij Maharaj temple, inside the fort complex, is dedicated to Lord Krishna and it has a beautiful black stone idol of the Lord. It was brought from Rajasthan during Raja Jagat Singh’s reign. The walls are decorated with exquisite paintings from Indian mythology. The Brij Raj Swami temple inside the Nurpur fort is a 16th century historical temple of Lord Krishna and home to a much revered deity of the local population and attracts tourists. It is the only temple in the world, where Lord Krishna and Meera idols are worshipped. It is said the statue of Lord Krishna was worshipped by Meera, and when Raja of Nurpur went to Chittorgarh he got this statue as a return gift from the Maharana of Chittorgarh. Along with this, Raja also brought a Moulsary (a fruit-bearing plant) sampling and it was dried on way back and it was put to life through Puja and chanting of mantras. This plant has now grown into a huge tree. It flowers, but does not bear any fruit unlike such plants in Rajasthan.



Dibkeshwar Mahadev

This place is a naturally made cave which is supposed to be a place where Lord shiva Lived once..Some myths are that this cave is made by Pandavas during their exile.This holy place of Mahadev is 15 K.M's from Nurpur.



Kotte Wali Mata

राजा का तालाब कस्बे मे मां कोटे वाली का भव्य गेट वना हुआ है। मात्र चार किलोमीटर की दूरी तय करके गुरियाल गांव में पहाड़ी के शिखर पर माता कोटे वाली का मंदिर स्थित है। इस मंदिर में पहुंचने के लिए पठानकोट से तलाड़ा रेल मार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है और सड़क मार्ग द्वारा पठानकोट से हिमाचल के प्रवेशद्वार पर स्थित व्यापारिक कस्बे जसूर से होते हुए राजा का तालाब आसानी से पहुंचा जा सकता है…





Nagni Mata

The Nagni Mata temple (Baddi Nagni), located about 6 km from Nurpur town on Pathankot/Kullu highway, is very famous. It is unique because water comes from below the temple where the idol of Naagni Maata is placed. People who get snake bite, come to Naagni Maata and simply drinking water and applying the Mitti, get cured completely. The amount of water which flows there is quite sufficient, and there are number of water mills installed for grinding grain.

कांगड़ा जिला की वर्ष भर मनाए जाने वाले असंख्य मेलों की श्रृंखला में सबसे लंबे समय अर्थात् दो मास तक मनाए जाने वाला प्रदेश का एक मात्र ‘मेला नागिनी माता’ है। यह मेला प्रति वर्ष श्रावण एवं भाद्रपद मास के प्रत्येक शनिवार को नागिनी माता के मंदिर, कोढ़ी-टीका में परंपरागत श्रद्धा एवं हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। लोगों की मान्यता है कि मेले में नागिनी माता का आशीर्वाद प्राप्त करने से सांप इत्यादि विषैले कीड़ों के दंश का भय नहीं रहता है। नागिनी माता का प्राचीन एवं ऐतिहासिक मंदिर नूरपुर से लगभग 10 किलोमीटर दूर गांव भडवार के समीप कोढ़ी-टीका गांव में स्थित है। नागिनी माता जोकि मनसा माता का रूप मानी जाती है, के नाम पर हर वर्ष श्रावण एवं भाद्रपद मास में मेले लगते हैं। इस मंदिर के इतिहास बारे कई जनश्रुतियां प्रचलित हैं। मंदिर को लेकर जो भी दंतकथाएं हो, सत्यता जो भी हो, परंतु लोग श्रद्धाभाव से जहरीले जीवों, कीटों तथा सर्पदंश के इलाज के लिए आज भी बड़ी संख्या में इस मंदिर में पहुंचते हैं। मंदिर की स्थापना को लेकर प्रचलित एक दंतकथा के अनुसार वर्तमान में कोढ़ी टीका में स्थित माता नागिनी मंदिर पहले घने जंगलों से घिरा हुआ स्थान हुआ करता था। बताया जाता है कि इस जंगल में कोढ़ से ग्रसित एक वृद्ध रहा करता था और कु ष्ठ रोग से मुक्ति के लिए भगवान से निरंतर प्रार्थना करता था। उसकी साधना सफल होने पर उसे नागिनी माता के दर्शन हुए तथा उसे नाले में दूध की धारा बहती दिखाई दी। स्वप्न टूटने पर उसने दूध की धारा वास्तविक रूप में बहती देखी जोकि वर्तमान में मंदिर के साथ बहते नाले के रूप में है। माता के निर्देशानुसार उसने अपने शरीर पर मिट्टी सहित दूध का लेप किया और वह कोढ़ मुक्त हो गया। आज भी यह परिवार माता की सेवा करता है और माना जाता है कि उसके परिवार को माता की दिव्य शक्तियां प्राप्त हैं। इसी तरह एक अन्य कथा के अनुसार एक नामी सपेरे ने मंदिर में आकर धोखे से नागिनी माता को अपने पिटारे में डालकर बंदी बना लिया। नागिनी माता ने क्षेत्रीय राजा को दर्शन देकर अपनी मुक्ति के लिए प्रार्थना की। वह सपेरा कंडवाल के पास आकर जैसे ही इस स्थल पर रुका तो राजा ने नागिनी माता को सपेरे से मुक्त करवाया। तब से इस स्थल को विषमुक्त होने की मान्यता मिली और सर्पदंश से पीडि़त लोग अपने इलाज के लिए यहां आने लगे। मंदिर के पुजारी के अनुसार माता कई बार सुनहरी रंग के सर्परूप में मंदिर परिसर में दर्शन देती है, जिसे देखकर बड़े आनंद की अनुभूति होती है । जिला स्तरीय मेला घोषित होने के उपरांत उपमंडलाधिकारी नूरपुर की अध्यक्षता में मंदिर प्रबंधन समिति का गठन किया गया है, जिसके माध्यम से मंदिर के विशाल भवन के निर्माण के अतिरिक्त श्रद्धालुओं एवं सांप से पीडि़त व्यक्तियों के ठहरने हेतु धर्मशालाएं तथा एक सामुदायिक भवन का निर्माण करवाया गया है। श्रद्धालु माता के मंदिर की मिट्टी ‘जिसे शक्कर कहा जाता है’ को बड़ी श्रद्धा व विश्वास के साथ घर ले जाते हैं ताकि घर में सांप तथा अन्य विषैले जंतुओं के प्रवेश का भय न रहे। इसके अलावा इस मिट्टी का उपयोग चर्म रोग के लिए औषधि के रूप में भी किया जाता है। मेले के दौरान श्रद्धालु नागिनी माता को दूध, खीर, फल इत्यादि व्यंजन अर्पित करके इसकी पूजा अराधना करते है।



Ratte Ghar Wali Mata

Near Baduhi Village, Nurpur, Himachal Pradesh

हिमाचल प्रदेश को देवी-देवताओं की भूमि यानी 'देवभूमि' कहा जाता है | यहां कई देवी देवताओं के प्राचीन मंदिर स्थापित हैं | जिला कांगड़ा की नूरपुर विधानसभा के अंतर्गत आने वाले माता रत्ते घर वाली का प्राचीन प्रसिद्ध मंदिर है, जिसमें लोगों की सदियों से आस्था और विश्वास बना हुआ है | यह मंदिर नूरपुर से 10 किलोमीटर दूर खन्नी की एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित है |
मान्यतानुसार इस मंदिर का इतिहास बहुत ही विश्वसनीय और ऐतिहासिक है | इस मंदिर की स्थापना सन् 1942 में एक गद्दी समुदाय के व्यक्ति ने की थी और उसी व्यक्ति ने इस मंदिर का नाम रत्ते घर वाली माता रखा था | पुराने समय में लोग पहाड़ी रास्तों से पैदल जाया करते थे | सदियों से माता के दर से जिसने भी जो सच्चे मन से मांगा है उसकी फरियाद पूरी हुई है | जैसे-जैसे माता पर श्रद्धालुओं की आस्था बढ़ती गई वैसे-वैसे माता के मंदिर का विकास भी होना शुरू हो गया |

अब स्थानीय लोगों द्वारा यहां देखभाल के लिए एक कमेटी भी बनाई गई है जो इस मंदिर की देखभाल करती है | अब यहां सड़क, पानी और बिजली इत्यादि सभी सुविधाएं हैं | यहां हिमाचल, पंजाब, जम्मू से भी श्रद्धालु माता के दर्शनों करने आते हैं | नवरात्रों में यहां नौ दिन तक मेला लगता है | मंदिर कमेटी की तरफ से अष्टमी और नवमी को बड़ा मेला लगता है | नवमी को यहां हवन पूजा अर्चना और विशाल भंडारे का आयोजन होता है |

मंदिर कमेटी सचिव परषोतम शर्मा ने बताया कि यह मंदिर 1942 में बनाया गया था | इस मंदिर का निर्माण एक गद्दी समुदाय के व्यक्ति ने करवाया था, क्योंकि गद्दी यहां अपनी भेड़ बकरियों को लेकर आया था | इस दौरान अचानक उसकी भेड़ बकरियां गुम हो गईं तो उसने अपने साथ जो बन्नी माता का त्रिशूल रखा था उसे निकाल कर पूजा की और अपनी समस्या बताते हुए मन्नत मांगी |
इसके बाद माता ने हुक्म उसे दिया कि इस पहाड़ी पर मेरा मंदिर बना दो और मेरा नाम 'रत्ते घर वाली माता रखना' | इतना कहने के कुछ देर बाद ही उस व्यक्ति भेड़ बकरियां मिल गईं | इसके बाद यह मंदिर बनवाया गया |