भगवत गीता अध्याय दस ~ विभूतियोग (Bhagwat Geeta Chapter 10 in Hindi)
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भगवत गीता अध्याय दस ~ विभूतियोग
गत अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गुप्त राजविद्या का चित्रण किया, जो निश्चित ही कल्याण करती है। इस अध्याय में उनका कथन है- महाबाहु अर्जुन! मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को फिर भी सुन। यहाँ उसी को दूसरी बार कहने की आवश्यकता क्या है? वस्तुतः साधक को पूर्तिपर्यन्त खतरा है। ज्यों-ज्यों वह स्वरूप में ढलता जाता है, प्रकृति के आवरण सूक्ष्म होते जाते हैं, नये-नये दृश्य आते हैं। उसकी जानकारी महापुरुष ही देते रहते हैं। वह नहीं जानता। यदि वे मार्गदर्शन करना बन्द कर दें तो साधक स्वरूप की उपलब्धि से वंचित रहेगा। जब तक वह स्वरूप से दूर है, तब तक सिद्ध है कि प्रकृति का कोई-न-कोई आवरण बना है। फिसलने- लड़खड़ाने की सम्भावना बनी रहती है। अर्जुन शरणागत शिष्य है। उसने कहा- 'शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।'- भगवन्! मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण हूँ, मुझे सँभालिये। अतः उसके हित की कामना से योगेश्वर श्रीकृष्ण पुनः बोले-
Bhagwat Geeta Chapter 10 in Hindi
॥ अथ दशमोऽध्याय: ~ विभूतियोग ॥
श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥१॥
भावार्थ : श्रीभगवान् ने कहा- हे महाबाहु अर्जुन! और आगे सुनो। चूँकि तुम मेरे प्रिय सखा हो, अतः मैं तुम्हारे लाभ के लिए ऐसा ज्ञान प्रदान करूँगा, जो अभी तक मेरे द्वारा बताये गये ज्ञान से श्रेष्ठ होगा।
तात्पर्य: पराशर मुनि ने भगवान् शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है जो पूर्ण रूप से षड्ऐश्वर्यों- सम्पूर्ण शक्ति, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण धन, सम्पूर्ण ज्ञान, सम्पूर्ण सौन्दर्य तथा सम्पूर्ण त्याग से युक्त है, वह भगवान् है। जब कृष्ण इस धराधाम में थे, तो उन्होंने छहों ऐश्वर्यों का प्रदर्शन किया था, फलतः पराशर जैसे मुनियों ने कृष्ण को भगवान् रूप में स्वीकार किया है। अब अर्जुन को कृष्ण अपने ऐश्वर्यों तथा कार्य का और भी गुह्य ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। इसके पूर्व सातवें अध्याय से प्रारम्भ करके वे अपनी शक्तियों तथा उनके कार्य करने के विषय में बता चुके हैं। अब इस अध्याय में वे अपने ऐश्वर्यों का वर्णन कर रहे हैं। पिछले अध्याय में उन्होंने दृढ़ विश्वास के साथ भक्ति स्थापित करने में अपनी विभिन्न शक्तियों के योगदान की चर्चा स्पष्टतया की है। इस अध्याय में पुनः वे अर्जुन को अपनी सृष्टियों तथा विभिन्न ऐश्वर्यों के विषय में बता रहे हैं।
ज्यों-ज्यों भगवान् के विषय में कोई सुनता है, त्यों-त्यों वह भक्ति में रमता जाता है। मनुष्य को चाहिए कि भक्तों की संगति में भगवान् के विषय में सदा श्रवण करे, इससे उसकी भक्ति बढ़ेगी। भक्तों के समाज में ऐसी चर्चाएँ केवल उन लोगों के बीच हो सकती हैं, जो सचमुच कृष्णभावनामृत के इच्छुक हों। ऐसी चर्चाओं में अन्य लोग भाग नहीं ले सकते। भगवान् अर्जुन से स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि चूँकि तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो, अतः तुम्हारे लाभ के लिए ऐसी बातें कह रहा हूँ।
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥२॥
भावार्थ : न तो देवतागण मेरी उत्पत्ति या ऐश्वर्य को जानते हैं और न महर्षिगण ही जानते हैं, क्योंकि मैं सभी प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी कारणस्वरूप (उद्गम) हूँ।
तात्पर्य : जैसा कि ब्रह्मसंहिता में कहा गया है, भगवान् कृष्ण ही परमेश्वर हैं। उनसे बढ़कर कोई नहीं है, वे समस्त कारणों के कारण हैं। यहाँ पर भगवान् स्वयं कहते हैं कि वे समस्त देवताओं तथा ऋषियों के कारण हैं। देवता तथा महर्षि तक कृष्ण को नहीं समझ पाते। जब वे उनके नाम या उनके व्यक्तित्व को नहीं समझ पाते तो इस क्षुद्रलोक के तथाकथित विद्वानों के विषय में क्या कहा जा सकता है? कोई नहीं जानता कि परमेश्वर क्यों मनुष्य रूप में इस पृथ्वी पर आते हैं और ऐसे विस्मयजनक असामान्य कार्यकलाप करते हैं। तब तो यह समझ लेना चाहिए कि कृष्ण को जानने के लिए विद्वत्ता आवश्यक नहीं है। बड़े-बड़े देवताओं तथा ऋषियों ने मानसिक चिन्तन द्वारा कृष्ण को जानने का प्रयास किया, किन्तु जान नहीं पाये।
श्रीमद्भागवत में भी स्पष्ट कहा गया है कि बड़े से बड़े देवता भी भगवान् को नहीं जान पाते। जहाँ तक उनकी अपूर्ण इन्द्रियाँ पहुँच पाती हैं, वहीं तक वे सोच पाते हैं और निर्विशेषवाद के ऐसे विपरीत निष्कर्ष को प्राप्त होते हैं, जो प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा व्यक्त नहीं होता, या कि वे मनः चिन्तन द्वारा कुछ कल्पना करते हैं, किन्तु इस तरह के मूर्खतापूर्ण चिन्तन से कृष्ण को नहीं समझा जा सकता।
यहाँ पर भगवान् अप्रत्यक्ष रूप में यह कहते हैं कि यदि कोई परम सत्य को जानना चाहता है तो, "लो, मैं भगवान् के रूप में यहाँ हूँ। मैं परम भगवान् हूँ।" मनुष्य को चाहिए कि इसे समझे। यद्यपि अचिन्त्य भगवान् को साक्षात् रूप में कोई नहीं जान सकता, तो भी वे विद्यमान रहते हैं। वास्तव में हम सच्चिदानन्द रूप कृष्ण को तभी समझ सकते हैं, जब भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में उनके वचनों को पढ़ें। जो भगवान् की अपरा शक्ति में हैं, उन्हें ईश्वर की अनुभूति किसी शासन करने वाली शक्ति या निर्विशेष ब्रह्म रूप में होती है, किन्तु भगवान् को जानने के लिए दिव्य स्थिति में होना आवश्यक है।
चूँकि अधिकांश लोग कृष्ण को उनके वास्तविक रूप में नहीं समझ पाते, अतः वे अपनी अहैतुकी कृपा से ऐसे चिन्तकों पर दया दिखाने के लिए अवतरित होते हैं। ये चिन्तक भगवान् के असामान्य कार्यकलापों के होते हुए भी भौतिक शक्ति (माया) से कल्मषग्रस्त होने के कारण निर्विशेष ब्रह्म को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। केवल भक्तगण ही, जो भगवान् की शरण पूर्णतया ग्रहण कर चुके हैं, भगवत्कृपा से समझ पाते हैं कि कृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं। भगवद्भक्त निर्विशेष ब्रह्म की परवाह नहीं करते। वे अपनी श्रद्धा तथा भक्ति के कारण परमेश्वर की शरण ग्रहण करते हैं और कृष्ण की अहैतुकी कृपा से ही उन्हें समझ पाते हैं। अन्य कोई उन्हें नहीं समझ पाता। अतः बड़े से बड़े ऋषि भी स्वीकार करते हैं कि आत्मा या परमात्मा तो वह है, जिसकी हम पूजा करते हैं।
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥३॥
भावार्थ : जो मुझे अजन्मा, अनादि, समस्त लोकों के स्वामी के रूप में जानता है, मनुष्यों में केवल वही मोहरहित और समस्त पापों से मुक्त होता है।
तात्पर्य : जैसा कि सातवें अध्याय में (७.३) कहा गया है- मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये- जो लोग आत्म-साक्षात्कार के पद तक उठने के लिए प्रयत्नशील होते हैं, वे सामान्य व्यक्ति नहीं हैं, वे उन करोड़ों सामान्य व्यक्तियों से श्रेष्ठ हैं, जिन्हें आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान नहीं होता। किन्तु जो वास्तव में अपनी आध्यात्मिक स्थिति को समझने के लिए प्रयत्नशील होते हैं, उनमें से श्रेष्ठ वही है, जो यह जान लेता है कि कृष्ण ही भगवान्, प्रत्येक वस्तु के स्वामी तथा अजन्मा हैं, वही सबसे अधिक सफल अध्यात्मज्ञानी है। जब वह कृष्ण की परम स्थिति को पूरी तरह समझ लेता है, उसी दशा में वह समस्त पापकर्मों से मुक्त हो पाता है।
यहाँ पर भगवान् को अज अर्थात् अजन्मा कहा गया है, किन्तु वे द्वितीय अध्याय में वर्णित उन जीवों से भिन्न हैं, जिन्हें अज कहा गया है। भगवान् जीवों से भिन्न हैं, क्योंकि जीव भौतिक आसक्तिवश जन्म लेते तथा मरते रहते हैं। बद्धजीव अपना शरीर बदलते रहते हैं, किन्तु भगवान् का शरीर परिवर्तनशील नहीं है। यहाँ तक कि जब वे इस लोक में आते हैं तो भी वे उसी अजन्मा रूप में आते हैं। इसीलिए चौथे अध्याय में कहा गया है कि भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण अपराशक्ति माया के अधीन नहीं हैं, अपितु पराशक्ति में रहते हैं।
इस श्लोक के वेत्ति लोक महेश्वरम् शब्दों से सूचित होता है कि मनुष्य को यह जानना चाहिए कि भगवान् कृष्ण ब्रह्माण्ड के सभी लोकों के परम स्वामी हैं।
वे सृष्टि के पूर्व थे और अपनी सृष्टि से भिन्न हैं। सारे देवता इसी भौतिक जगत् में उत्पन्न हुए, किन्तु कृष्ण अजन्मा हैं, फलतः वे ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे बड़े-बड़े देवताओं से भी भिन्न हैं और चूँकि वे ब्रह्मा, शिव तथा अन्य समस्त देवताओं के स्रष्टा हैं, अतः वे समस्त लोकों के परम पुरुष हैं।
अतएव श्रीकृष्ण उस हर वस्तु से भिन्न हैं, जिसकी सृष्टि हुई है और जो उन्हें इस रूप में जान लेता है, वह तुरन्त ही सारे पापकर्मों से मुक्त हो जाता है। परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य को समस्त पापकर्मों से मुक्त होना चाहिए। जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है कि उन्हें केवल भक्ति के द्वारा जाना जा सकता है, किसी अन्य साधन से नहीं।
मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण को सामान्य मनुष्य न समझे। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, केवल मूर्ख व्यक्ति ही उन्हें मनुष्य मानता है। इसे यहाँ भिन्न प्रकार से कहा गया है। जो व्यक्ति मूर्ख नहीं है, जो भगवान् के स्वरूप को ठीक से समझ सकता है, वह समस्त पापकर्मों से मुक्त है।
यदि कृष्ण देवकीपुत्र रूप में विख्यात हैं, तो फिर वे अजन्मा कैसे हो सकते हैं? इसकी व्याख्या श्रीमद्भागवत में भी की गई है- जब वे देवकी तथा वसुदेव के समक्ष प्रकट हुए तो वे सामान्य शिशु की तरह नहीं जन्मे। वे अपने आदि रूप में प्रकट हुए और फिर एक सामान्य शिशु में परिणत हो गए।
कृष्ण की अध्यक्षता में जो भी कर्म किया जाता है, वह दिव्य है। वह शुभ या अशुभ फलों से दूषित नहीं होता। इस जगत् में शुभ या अशुभ वस्तुओं का बोध बहुत कुछ मनोधर्म है, क्योंकि इस भौतिक जगत् में कुछ भी शुभ नहीं है। प्रत्येक वस्तु अशुभ है, क्योंकि प्रकृति स्वयं ही अशुभ है। हम इसे शुभ मानने की कल्पना मात्र करते हैं। वास्तविक मंगल तो पूर्णभक्ति और सेवाभाव से युक्त कृष्णभावनामृत पर ही निर्भर करता है। अतः यदि हम तनिक भी चाहते हैं कि हमारे कर्म शुभ हों तो हमें परमेश्वर की आज्ञा से कर्म करना होगा। ऐसी आज्ञा श्रीमद्भागवत तथा भगवद्गीता जैसे शास्त्रों से या प्रामाणिक गुरु से प्राप्त की जा सकती है। चूँकि गुरु भगवान् का प्रतिनिधि होता है, अतः उसकी आज्ञा प्रत्यक्षतः परमेश्वर की आज्ञा होती है। गुरु, साधु तथा शास्त्र एक ही प्रकार से आज्ञा देते हैं। इन तीनों स्रोतों में कोई विरोध नहीं होता। इस प्रकार से किये गये सारे कार्य इस जगत् के शुभाशुभ कर्मफलों से मुक्त होते हैं। कर्म सम्पन्न करते हुए भक्त की दिव्य मनोवृत्ति वैराग्य की होती है, जिसे संन्यास कहते हैं। जैसा कि भगवद्गीता के छठे अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा गया है कि, जो भगवान् का आदेश मानकर कोई कर्तव्य करता है और जो अपने कर्मफलों की शरण ग्रहण नहीं करता (अनाश्रितः कर्मफलम्), वही असली संन्यासी है। जो भगवान् के निर्देशानुसार कर्म करता है, वास्तव में संन्यासी तथा योगी वही है, केवल संन्यासी या छद्म योगी के वेष में रहने वाला व्यक्ति नहीं।
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥४॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥५॥
भावार्थ : बुद्धि, ज्ञान, संशय तथा मोह से मुक्ति, क्षमाभाव, सत्यता, इन्द्रियनिग्रह, मननिग्रह, सुख तथा दुःख, जन्म, मृत्यु, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश तथा अपयश – जीवों के ये विविध गुण मेरे ही द्वारा उत्पन्न हैं।
तात्पर्य : जीवों के अच्छे या बुरे गुण कृष्ण द्वारा उत्पन्न हैं और यहाँ पर उनका वर्णन किया गया है।
बुद्धि का अर्थ है नीर-क्षीर विवेक करने वाली शक्ति और ज्ञान का अर्थ है, आत्मा तथा पदार्थ को जान लेना। विश्वविद्यालय की शिक्षा से प्राप्त सामान्य ज्ञान मात्र पदार्थ से सम्बन्धित होता है, यहाँ इसे ज्ञान नहीं स्वीकार किया गया है। ज्ञान का अर्थ है आत्मा तथा भौतिक पदार्थ के अन्तर को जानना। आधुनिक शिक्षा में आत्मा के विषय में कोई ज्ञान नहीं दिया जाता, केवल भौतिक तत्त्वों तथा शारीरिक आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाता है। फलस्वरूप शैक्षिक ज्ञान पूर्ण नहीं है।
असम्मोह अर्थात् संशय तथा मोह से मुक्ति तभी प्राप्त हो सकती है, जब मनुष्य झिझकता नहीं और दिव्य दर्शन को समझता है। वह धीरे-धीरे निश्चित रूप से मोह से मुक्त हो जाता है। हर बात को सतर्कतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए, आँख मूँदकर कुछ भी स्वीकार नहीं करना चाहिए। क्षमा का अभ्यास करना चाहिए। मनुष्य को सहिष्णु होना चाहिए और दूसरों के छोटे-छोटे अपराध क्षमा कर देना चाहिए। सत्यम् का अर्थ है कि तथ्यों को सही रूप में अन्यों के लाभ के लिए प्रस्तुत किया जाए। तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना नहीं चाहिए।
सामाजिक प्रथा के अनुसार कहा जाता है कि वही सत्य बोलना चाहिए, जो अन्यों को प्रिय लगे। किन्तु यह सत्य नहीं है। सत्य को सही-सही रूप में बोलना चाहिए, जिससे दूसरे लोग समझ सकें कि सच्चाई क्या है। यदि कोई मनुष्य चोर है और यदि लोगों को सावधान कर दिया जाए कि अमुक व्यक्ति चोर है, तो यह सत्य है। यद्यपि सत्य कभी-कभी अप्रिय होता है, किन्तु सत्य कहने में संकोच नहीं करना चाहिए। सत्य की माँग है कि तथ्यों को यथारूप में लोकहित के लिए प्रस्तुत किया जाए। यही सत्य की परिभाषा है।
दमः का अर्थ है कि इन्द्रियों को व्यर्थ के विषयभोग में न लगाया जाए। इन्द्रियों की समुचित आवश्यकताओं की पूर्ति का निषेध नहीं है, किन्तु अनावश्यक इन्द्रियभोग आध्यात्मिक उन्नति में बाधक है। फलतः इन्द्रियों के अनावश्यक उपयोग पर नियन्त्रण रखना चाहिए। इसी प्रकार मन पर भी अनावश्यक विचारों के विरुद्ध संयम रखना चाहिए। इसे शम कहते हैं। मनुष्य को चाहिए कि धन-अर्जन के चिन्तन में ही सारा समय न गँवाये। यह चिन्तन शक्ति का दुरुपयोग है। मन का उपयोग मनुष्यों की मूल आवश्यकताओं को समझने के लिए किया जाना चाहिए और उसे ही प्रमाणपूर्वक प्रस्तुत करना चाहिए। शास्त्रमर्मज्ञों, साधुपुरुषों, गुरुओं तथा महान विचारकों की संगति में रहकर विचार-शक्ति का विकास करना चाहिए। जिस प्रकार से कृष्णभावनामृत के आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन में सुविधा हो वही सुखम् है। इसी प्रकार दुःखम् वह है, जिससे कृष्णभावनामृत के अनुशीलन में असुविधा हो। जो कुछ कृष्णभावनामृत के विकास के अनुकूल हो, उसे स्वीकार करे और जो प्रतिकूल हो उसका परित्याग करे।
भव अर्थात् जन्म का सम्बन्ध शरीर से है। जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है, वह न तो उत्पन्न होता है न मरता है। इसकी व्याख्या हम भगवद्गीता के प्रारम्भ में ही कर चुके हैं। जन्म तथा मृत्यु का संबंध इस भौतिक जगत् में शरीर धारण करने से है। भय तो भविष्य की चिन्ता से उद्भूत है। कृष्णभावनामृत में रहने वाला व्यक्ति कभी भयभीत नहीं होता, क्योंकि वह अपने कर्मों के द्वारा भगवद्धाम को वापस जाने के प्रति आश्वस्त रहता है। फलस्वरूप उसका भविष्य उज्वल होता है। किन्तु अन्य लोग अपने भविष्य के विषय में कुछ नहीं जानते, उन्हें इसका कोई ज्ञान नहीं होता कि अगले जीवन में क्या होगा। फलस्वरूप वे निरन्तर चिन्ताग्रस्त रहते हैं। यदि हम चिन्तामुक्त होना चाहते हैं, तो सर्वोत्तम उपाय यह है कि हम कृष्ण को जानें तथा कृष्णभावनामृत में निरन्तर स्थित रहें। इस प्रकार हम समस्त भय से मुक्त रहेंगे।
श्रीमद्भागवत में (११.२.३७) कहा गया है- भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात्- भय तो हमारे मायापाश में फँस जाने से उत्पन्न होता है। किन्तु जो माया के जाल से मुक्त हैं, जो आश्वस्त हैं कि वे शरीर नहीं, अपितु भगवान् के आध्यात्मिक अंश हैं और जो भगवद्भक्ति में लगे हुए हैं, उन्हें कोई भय नहीं रहता। उनका भविष्य अत्यन्त उज्ज्वल है। यह भय तो उन व्यक्तियों की अवस्था है, जो कृष्णभावनामृत में नहीं हैं। अभयम् तभी सम्भव है, जब कृष्णभावनामृत में रहा जाए।
अहिंसा का अर्थ होता है कि अन्यों को कष्ट न पहुँचाया जाय। जो भौतिक कार्य अनेकानेक राजनीतिज्ञों, समाजशास्त्रियों, परोपकारियों आदि द्वारा किये जाते हैं, उनके परिणाम अच्छे नहीं निकलते, क्योंकि राजनीतिज्ञों तथा परोपकारियों में दिव्यदृष्टि नहीं होती, वे यह नहीं जानते कि वास्तव में मानव समाज के लिए क्या लाभप्रद है। अहिंसा का अर्थ है कि मनुष्यों को इस प्रकार से प्रशिक्षित किया जाए कि इस मानवदेह का पूरा-पूरा उपयोग हो सके। मानवदेह आत्म-साक्षात्कार के हेतु मिला है। अतः ऐसी कोई संस्था या संघ जिससे उद्देश्य की पूर्ति में प्रोत्साहन न हो, मानवदेह के प्रति हिंसा करने वाला है। जिससे मनुष्यों के भावी आध्यात्मिक सुख में वृद्धि हो, वही अहिंसा है।
समता से राग-द्वेष से मुक्ति द्योतित होती है। न तो अत्यधिक राग अच्छा होता है और न अत्यधिक द्वेष ही। इस भौतिक जगत् को राग-द्वेष से रहित होकर स्वीकार करना चाहिए। जो कुछ कृष्णभावनामृत को सम्पन्न करने में अनुकूल हो, उसे ग्रहण करे और जो प्रतिकूल हो उसका त्याग कर दे। यही समता है। कृष्णभावनामृत युक्त व्यक्ति को न तो कुछ ग्रहण करना होता है, न त्याग करना होता है। उसे तो कृष्णभावनामृत सम्पन्न करने में उसकी उपयोगिता से प्रयोजन रहता है।
तुष्टि का अर्थ है कि मनुष्य को चाहिए कि अनावश्यक कार्य करके अधिकाधिक वस्तुएँ एकत्र करने के लिए उत्सुक न रहे। उसे तो ईश्वर की कृपा से जो प्राप्त हो जाए, उसी से प्रसन्न रहना चाहिए। यही तुष्टि है। तपस् का अर्थ है तपस्या। तपस् के अन्तर्गत वेदों में वर्णित अनेक विधि-विधानों का पालन करना होता है- यथा प्रातः काल उठना और स्नान करना। कभी-कभी प्रातः काल उठना अति कष्टकारक होता है, किन्तु इस प्रकार स्वेच्छा से जो भी कष्ट सहे जाते हैं, वे तपस् या तपस्या कहलाते हैं। इसी प्रकार मास के कुछ विशेष दिनों में उपवास रखने का भी विधान है। हो सकता है कि इन उपवासों को करने की इच्छा न हो, किन्तु कृष्णभावनामृत के विज्ञान में प्रगति करने के संकल्प के कारण उसे ऐसे शारीरिक कष्ट उठाने होते हैं। किन्तु उसे व्यर्थ ही अथवा वैदिक आदेशों के प्रतिकूल उपवास करने की आवश्यकता नहीं है। उसे किसी राजनीतिक उद्देश्य से उपवास नहीं करना चाहिए।
भगवद्गीता में इसे तामसी उपवास कहा गया है तथा किसी भी ऐसे कार्य से जो तमोगुण या रजोगुण में किया जाता है, आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती। किन्तु सतोगुण में रहकर जो भी कार्य किया जाता है, वह समुन्नत बनाने वाला है, अतः वैदिक आदेशों के अनुसार किया गया उपवास आध्यात्मिक ज्ञान को समुन्नत बनाता है।
जहाँ तक दान का सम्बन्ध है, मनुष्य को चाहिए कि अपनी आय का पचास प्रतिशत किसी शुभ कार्य में लगाए और यह शुभ कार्य है क्या? यह है कृष्णभावनामृत में किया गया कार्य। ऐसा कार्य शुभ ही नहीं, अपितु सर्वोत्तम होता है। चूँकि कृष्ण अच्छे हैं इसीलिए उनका कार्य (निमित्त) भी अच्छा है, अतः दान उसे दिया जाय जो कृष्णभावनामृत में लगा हो। वेदों के अनुसार ब्राह्मणों को दान दिया जाना चाहिए। यह प्रथा आज भी चालू है, यद्यपि इसका स्वरूप वह नहीं है,
जैसा कि वेदों का उपदेश है। फिर भी आदेश यही है कि दान ब्राह्मणों को दिया जाये। वह क्यों? क्योंकि वे आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन में लगे रहते हैं। ब्राह्मण से यह आशा की जाती है कि वह सारा जीवन ब्रह्मजिज्ञासा में लगा दे। ब्रह्म जानातीति ब्राह्मण:- जो ब्रह्म को जाने, वही ब्राह्मण है। इसीलिए दान ब्राह्मणों को दिया जाता है, क्योंकि वे सदैव आध्यात्मिक कार्य में रत रहते हैं और उन्हें जीविकोपार्जन के लिए समय नहीं मिल पाता। वैदिक साहित्य में संन्यासियों को भी दान दिये जाने का आदेश है। संन्यासी द्वार-द्वार जाकर भिक्षा माँगते हैं। वे धनार्जन के लिए नहीं, अपितु प्रचारार्थ ऐसा करते हैं। वे द्वार-द्वार जाकर गृहस्थों को अज्ञान की निद्रा से जगाते हैं। चूँकि गृहस्थ गृहकार्यों में व्यस्त रहने के कारण अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को, कृष्णभावनामृत जगाने को, भूले रहते हैं, अतः यह संन्यासियों का कर्तव्य है कि वे भिखारी बन कर गृहस्थों के पास जाएँ और कृष्णभावनाभावित होने के लिए उन्हें प्रेरित करें। वेदों का कथन है कि मनुष्य जागे और मानव जीवन में जो प्राप्त करना है, उसे प्राप्त करे। संन्यासियों द्वारा यह ज्ञान तथा विधि वितरित की जाती है, अतः संन्यासी को ब्राह्मणों को तथा इसी प्रकार के उत्तम कार्यों के लिए दान देना चाहिए, किसी सनक के कारण नहीं।
यशस् भगवान् चैतन्य के अनुसार होना चाहिए। उनका कथन है कि मनुष्य तभी प्रसिद्धि (यश) प्राप्त करता है, जब वह महान भक्त के रूप में जाना जाता हो। यही वास्तविक यश है। यदि कोई कृष्णभावनामृत में महान बनता है और विख्यात होता है, तो वही वास्तव में प्रसिद्ध है। जिसे ऐसा यश प्राप्त न हो, वह अप्रसिद्ध है।
ये सारे गुण संसार भर में मानव समाज में तथा देवसमाज में प्रकट होते हैं। अन्य लोकों में भी विभिन्न तरह के मानव हैं और ये गुण उनमें भी होते हैं। तो, जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में प्रगति करना चाहता है, उसमें कृष्ण ये सारे गुण उत्पन्न कर देते हैं, किन्तु मनुष्य को तो इन्हें अपने अन्तर में विकसित करना होता है। जो व्यक्ति भगवान् की सेवा में लग जाता है, वह भगवान् की योजना के अनुसार इन सारे गुणों को विकसित कर लेता है।
हम जो कुछ भी अच्छा या बुरा देखते हैं उसका मूल श्रीकृष्ण हैं। इस संसार में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं, जो कृष्ण में स्थित न हो। यही ज्ञान है। यद्यपि हम जानते हैं कि वस्तुएँ भिन्न रूप से स्थित हैं, किन्तु हमें यह अनुभव करना चाहिए कि सारी वस्तुएँ कृष्ण से ही उत्पन्न हैं।
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥६॥
भावार्थ : सप्तर्षिगण तथा उनसे भी पूर्व चार अन्य महर्षि एवं सारे मनु (मानवजाति के पूर्वज) सब मेरे मन से उत्पन्न हैं और विभिन्न लोकों में निवास करने वाले सारे जीव उनसे अवतरित होते हैं।
तात्पर्य : भगवान् यहाँ पर ब्रह्माण्ड की प्रजा का आनुवंशिक वर्णन कर रहे हैं। ब्रह्मा परमेश्वर की शक्ति से उत्पन्न आदि जीव हैं, जिन्हें हिरण्यगर्भ कहा जाता है। ब्रह्मा से सात महर्षि तथा इनसे भी पूर्व चार महर्षि सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत्कुमार एवं सारे मनु प्रकट हुए। ये पच्चीस महान ऋषि ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के धर्म-पथप्रदर्शक कहलाते हैं। असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में असंख्य लोक हैं और प्रत्येक लोक में नाना योनियाँ निवास करती हैं। ये सब इन्हीं पच्चीसों प्रजापतियों से उत्पन्न हैं।
कृष्ण की कृपा से एक हजार दिव्य वर्षों तक तपस्या करने के बाद ब्रह्मा को सृष्टि करने का ज्ञान प्राप्त हुआ। तब ब्रह्मा से सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत्कुमार उत्पन्न हुए। उनके बाद रुद्र तथा सप्तर्षि और इस प्रकार फिर भगवान् की शक्ति से सभी ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों का जन्म हुआ। ब्रह्मा को पितामह कहा जाता है और कृष्ण को प्रपितामह- पितामह का पिता। इसका उल्लेख भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय (११.३९) में किया गया है।
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकल्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥७॥
भावार्थ : जो मेरे इस ऐश्वर्य तथा योग से पूर्णतया आश्वस्त है, वह मेरी अनन्य भक्ति में तत्पर होता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
तात्पर्य : आध्यात्मिक सिद्धि की चरम परिणति है, भगवद्ज्ञान। जब तक कोई भगवान् के विभिन्न ऐश्वर्यों के प्रति आश्वस्त नहीं हो लेता, तब तक भक्ति में नहीं लग सकता। सामान्यतया लोग इतना तो जानते हैं कि ईश्वर महान है, किन्तु यह नहीं जानते कि वह किस प्रकार महान है। यहाँ पर उसका विस्तृत विवरण दिया गया है। जब कोई यह जान लेता है कि ईश्वर कैसे महान है, तो वह सहज ही शरणागत होकर भगवद्भक्ति में लग जाता है। भगवान् के ऐश्वर्यों को ठीक से समझ लेने पर शरणागत होने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं रह जाता। ऐसा वास्तविक ज्ञान भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत तथा अन्य ऐसे ही ग्रंथों से प्राप्त किया जा सकता है।
इस ब्रह्माण्ड के संचालन के लिए विभिन्न लोकों में अनेक देवता नियुक्त हैं, जिनमें से ब्रह्मा, शिव, चारों कुमार तथा अन्य प्रजापति प्रमुख हैं। ब्रह्माण्ड की प्रजा के अनेक पितामह भी हैं और वे सब भगवान् कृष्ण से उत्पन्न हैं। भगवान् कृष्ण समस्त पितामहों के आदि पितामह हैं।
ये रहे परमेश्वर के कुछ ऐश्वर्य। जब मनुष्य को इन पर अटूट विश्वास हो जाता है, तो वह अत्यन्त श्रद्धा समेत तथा संशयरहित होकर कृष्ण को स्वीकार करता है और भक्ति करता है। भगवान् की प्रेमाभक्ति में रुचि बढ़ाने के लिए ही इस विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता है। कृष्ण की महानता को समझने में उपेक्षा भाव न बरते, क्योंकि कृष्ण की महानता को जानने पर ही एकनिष्ठ होकर भक्ति की जा सकती है।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥८॥
भावार्थ : मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है। जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं।
तात्पर्य : जिस विद्वान ने वेदों का ठीक से अध्ययन किया हो और भगवान् चैतन्य जैसे अधिकारियों से ज्ञान प्राप्त किया हो तथा यह जानता हो कि इन उपदेशों का किस प्रकार उपयोग करना चाहिए, वही यह समझ सकता है कि भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों के मूल श्रीकृष्ण ही हैं। इस प्रकार के ज्ञान से वह भगवद्भक्ति में स्थिर हो जाता है। वह व्यर्थ की टीकाओं से या मूर्खों के द्वारा कभी पथभ्रष्ट नहीं होता। सारा वैदिक साहित्य स्वीकार करता है कि कृष्ण ही ब्रह्मा, शिव तथा अन्य समस्त देवताओं के स्रोत हैं।
अथर्ववेद में (गोपालतापनी उपनिषद् १.२४) कहा गया है- यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च गापयति स्म कृष्णः- प्रारम्भ में कृष्ण ने ब्रह्मा को वेदों का ज्ञान प्रदान किया और उन्होंने भूतकाल में वैदिक ज्ञान का प्रचार किया। पुनः नारायण उपनिषद् में (१) कहा गया है- अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति- तब भगवान् ने जीवों की सृष्टि करनी चाही। उपनिषद् में आगे भी कहा गया है- नारायणाद् ब्रह्मा जायते नारायणाद् प्रजापतिः प्रजायते नारायणाद् इन्द्रो जायते। नारायणादष्टौ वसवो जायन्ते नारायणादेकादश रुद्रा
जायन्ते नारायणाद्वदशादित्याः- "नारायण से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं, नारायण से प्रजापति उत्पन्न होते हैं, नारायण से इन्द्र और आठ वसु उत्पन्न होते हैं और नारायण से ही ग्यारह रुद्र तथा बारह आदित्य उत्पन्न होते हैं।" यह नारायण कृष्ण के ही अंश हैं।
वेदों का ही कथन है- ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रः- देवकी पुत्र, कृष्ण, ही भगवान् हैं (नारायण उपनिषद् ४)। तब यह कहा गया- एको वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा न ईशानो नापो नाग्निसमौ नेमे द्यावापृथिवी न नक्षत्राणि न सूर्य:- सृष्टि के प्रारम्भ में केवल भगवान् नारायण थे। न ब्रह्मा थे, न शिव न अग्नि थी, न चन्द्रमा, न नक्षत्र और न सूर्य (महा उपनिषद् १)। महा उपनिषद् में यह भी कहा गया है कि शिवजी परमेश्वर के मस्तक से उत्पन्न हुए। अतः वेदों का कहना है कि ब्रह्मा तथा शिव के स्रष्टा भगवान् की ही पूजा की जानी चाहिए।
मोक्षधर्म में कृष्ण कहते हैं-
प्रजापतिं च रुद्रं चाप्यहमेव सृजामि वै ।
तौ हि मां न विजानीतो मम मायाविमोहितौ ॥
"मैंने ही प्रजापतियों को, शिव तथा अन्यों को उत्पन्न किया, किन्तु वे मेरी माया से मोहित होने के कारण यह नहीं जानते कि मैंने ही उन्हें उत्पन्न किया।"
वराह पुराण में भी कहा गया है-
नारायणः परो देवस्तस्माज्जातश्चतुर्मुखः ।
तस्माद् रुद्रोऽभवद्देवः स च सर्वज्ञतां गतः ॥
"नारायण भगवान् हैं, जिनसे ब्रह्मा उत्पन्न हुए और फिर ब्रह्मा से शिव उत्पन्न हुए।"
भगवान् कृष्ण समस्त उत्पत्तियों के स्रोत हैं और वे सर्वकारण कहलाते हैं। वे स्वयं कहते हैं, "चूँकि सारी वस्तुएँ मुझसे उत्पन्न हैं, अतः मैं सबों का मूल कारण हूँ। सारी वस्तुएँ मेरे अधीन हैं, मेरे ऊपर कोई भी नहीं है।" कृष्ण से बढ़कर कोई परम नियन्ता नहीं है। जो व्यक्ति प्रामाणिक गुरु से या वैदिक साहित्य से इस प्रकार कृष्ण को जान लेता है, वह अपनी सारी शक्ति कृष्णभावनामृत में लगाता है और सचमुच विद्वान पुरुष बन जाता है। उसकी तुलना में अन्य सारे लोग, जो कृष्ण को ठीक से नहीं जानते, मात्र मूर्ख सिद्ध होते हैं। केवल मूर्ख ही कृष्ण को सामान्य व्यक्ति समझेगा।
कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को चाहिए कि कभी मूर्खों द्वारा मोहित न हो, उसे भगवद्गीता की समस्त अप्रामाणिक टीकाओं एवं व्याख्याओं से दूर रहना चाहिए और दृढ़तापूर्वक कृष्णभावनामृत में अग्रसर होना चाहिए।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥९॥
भावार्थ : मेरे शुद्धभक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
तात्पर्य : यहाँ जिन शुद्ध भक्तों के लक्षणों का उल्लेख हुआ है, वे निरन्तर भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में रमे रहते हैं। उनके मन कृष्ण के चरणकमलों से हटते नहीं। वे दिव्य विषयों की ही चर्चा चलाते हैं। इस श्लोक में शुद्ध भक्तों के लक्षणों का विशेष रूप से उल्लेख हुआ है। भगवद्भक्त परमेश्वर के गुणों तथा उनकी लीलाओं के गान में अहर्निश लगे रहते हैं। उनके हृदय तथा आत्माएँ निरन्तर कृष्ण में निमग्न रहती हैं। और वे अन्य भक्तों से भगवान् के विषय में बातें करने में आनन्दानुभव करते हैं।
भक्ति की प्रारम्भिक अवस्था में वे सेवा में ही दिव्य आनन्द उठाते हैं और परिपक्वावस्था में वे ईश्वर-प्रेम को प्राप्त होते हैं। जब वे इस दिव्य स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं, तब वे उस सर्वोच्च सिद्धि का स्वाद लेते हैं, जो भगवद्धाम में प्राप्त होती है। भगवान् चैतन्य दिव्य भक्ति की तुलना जीव के हृदय में बीज बोने से करते हैं। ब्रह्माण्ड के विभिन्न लोकों में असंख्य जीव विचरण करते रहते हैं। इनमें से कुछ ही भाग्यशाली होते हैं, जिनकी शुद्धभक्त से भेंट हो पाती है और जिन्हें भक्ति समझने का अवसर प्राप्त हो पाता है। यह भक्ति बीज के सदृश है। यदि इसे जीव के हृदय में बो दिया जाये और जीव हरे कृष्ण मन्त्र का श्रवण तथा कीर्तन करता रहे तो बीज अंकुरित होता है, जिस प्रकार कि नियमतः सींचते रहने से वृक्ष का बीज फलता है। भक्ति रूपी आध्यात्मिक पौधा क्रमशः बढ़ता रहता है, जब तक यह ब्रह्माण्ड के आवरण को भेदकर ब्रह्मज्योति में प्रवेश नहीं कर जाता। ब्रह्मज्योति में भी यह पौधा तब तक बढ़ता जाता है, जब तक उस उच्चतम लोक को नहीं प्राप्त कर लेता, जिसे गोलोक वृन्दावन या कृष्ण का परमधाम कहते हैं। अन्ततोगत्वा यह पौधा भगवान् के चरणकमलों की शरण प्राप्त कर वहीं विश्राम पाता है। जिस प्रकार पौधे में क्रम से फूल तथा फल आते हैं, उसी प्रकार भक्तिरूपी पौधे में भी फल आते हैं और कीर्तन तथा श्रवण के रूप में उसका सिंचन चलता रहता है। चैतन्य चरितामृत में (मध्य लीला, अध्याय १९) भक्तिरूपी पौधे का विस्तार से वर्णन हुआ है। वहाँ यह बताया गया है कि जब पूर्ण पौधा भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण कर लेता है तो मनुष्य पूर्णतया भगवत्प्रेम में लीन हो जाता है, तब वह एक क्षण भी परमेश्वर के बिना नहीं रह पाता, जिस प्रकार कि मछली जल के बिना नहीं रह सकती। ऐसी अवस्था में भक्त वास्तव में परमेश्वर के संसर्ग से दिव्यगुण प्राप्त कर लेता है।
श्रीमद्भागवत में भी भगवान् तथा उनके भक्तों के सम्बन्ध के विषय में ऐसी अनेक कथाएँ हैं। इसीलिए श्रीमद्भागवत भक्तों को अत्यन्त प्रिय है जैसा कि भागवत में ही (१२.१३.१८) कहा गया है- श्रीमद्भागवतं पुराणं अमलं यद्वैष्णवानां प्रियम्। ऐसी कथा में भौतिक कार्यों, आर्थिक विकास, इन्द्रियतृप्ति या मोक्ष के विषय में कुछ भी नहीं है। श्रीमद्भागवत ही एकमात्र ऐसी कथा है, जिसमें भगवान् तथा उनके भक्तों की दिव्य प्रकृति का पूर्ण वर्णन मिलता है। फलतः कृष्णभावनाभावित जीव ऐसे दिव्य साहित्य के श्रवण में दिव्य रुचि दिखाते हैं, जिस प्रकार तरुण तथा तरुणी को परस्पर मिलने में आनन्द प्राप्त होता है।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥१०॥
भावार्थ : जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।
तात्पर्य : इस श्लोक में बुद्धि-योगम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। हमें स्मरण हो कि द्वितीय अध्याय में भगवान् ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा था कि मैं तुम्हें अनेक विषयों के बारे में बता चुका हूँ और अब मैं तुम्हें बुद्धियोग की शिक्षा दूँगा। अब उसी बुद्धियोग की व्याख्या की जा रही है।
बुद्धियोग कृष्णभावनामृत में रहकर कार्य करने को कहते हैं और यही उत्तम बुद्धि है। बुद्धि का अर्थ है बुद्धि और योग का अर्थ है यौगिक गतिविधियाँ अथवा यौगिक उन्नति। जब कोई भगवद्धाम को जाना चाहता है और भक्ति में वह कृष्णभावनामृत को ग्रहण कर लेता है, तो उसका यह कार्य बुद्धियोग कहलाता है। दूसरे शब्दों में, बुद्धियोग वह विधि है, जिससे मनुष्य भवबन्धन से छूटना चाहता है। उन्नति करने का चरम लक्ष्य कृष्णप्राप्ति है। लोग इसे नहीं जानते, अतः भक्तों तथा प्रामाणिक गुरु की संगति आवश्यक है। मनुष्य को ज्ञात होना चाहिए कि कृष्ण ही लक्ष्य हैं और जब लक्ष्य निर्दिष्ट है, तो पथ पर मन्दगति से प्रगति करने पर भी अन्तिम लक्ष्य प्राप्त हो जाता है।
जब मनुष्य लक्ष्य तो जानता है, किन्तु कर्मफल में लिप्त रहता है, तो वह कर्मयोगी होता है। यह जानते हुए कि लक्ष्य कृष्ण हैं, जब कोई कृष्ण को समझने के लिए मानसिक चिन्तन का सहारा लेता है, तो वह ज्ञानयोग में लीन होता है। किन्तु जब वह लक्ष्य को जानकर कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में कृष्ण की खोज करता है, तो वह भक्तियोगी या बुद्धियोगी होता है और यही पूर्णयोग है। यह पूर्णयोग ही जीवन की सिद्धावस्था है।
जब व्यक्ति प्रामाणिक गुरु के होते हुए तथा आध्यात्मिक संघ से सम्बद्ध रहकर भी प्रगति नहीं कर पाता, क्योंकि वह बुद्धिमान नहीं है, तो कृष्ण उसके अन्तर से उपदेश देते हैं, जिससे वह सरलता से उन तक पहुँच सके। इसके लिए जिस योग्यता की अपेक्षा है, वह यह है कि कृष्णभावनामृत में निरन्तर रहकर प्रेम तथा भक्ति के साथ सभी प्रकार की सेवा की जाए। उसे कृष्ण के लिए कुछ न कुछ कार्य करते रहना चाहिए, किन्तु प्रेमपूर्वक यदि भक्त इतना बुद्धिमान नहीं है कि आत्म- साक्षात्कार के पथ पर प्रगति कर सके, किन्तु यदि वह एकनिष्ठ रहकर भक्तिकार्यों में रत रहता है, तो भगवान् उसे अवसर देते हैं कि वह उन्नति करके अन्त में उनके पास पहुँच जाये।
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥११॥
भावार्थ : मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ।
तात्पर्य : जब भगवान् चैतन्य बनारस में हरे कृष्ण महामन्त्र के कीर्तन का प्रवर्तन कर रहे थे, तो हजारों लोग उनका अनुसरण कर रहे थे। तत्कालीन बनारस के अत्यन्त प्रभावशाली एवं विद्वान प्रकाशानन्द सरस्वती उनको भावुक कहकर उनका उपहास करते थे। कभी-कभी भक्तों की आलोचना दार्शनिक यह सोचकर करते हैं। कि भक्तगण अंधकार में हैं और दार्शनिक दृष्टि से भोले-भाले भावुक हैं, किन्तु यह तथ्य नहीं है। ऐसे अनेक बड़े-बड़े विद्वान पुरुष हैं, जिन्होंने भक्ति का दर्शन प्रस्तुत किया है। किन्तु यदि कोई भक्त उनके इस साहित्य का या अपने गुरु का लाभ न भी उठाये और यदि वह अपनी भक्ति में एकनिष्ठ रहे, तो उसके अन्तर से कृष्ण स्वयं उसकी सहायता करते हैं। अतः कृष्णभावनामृत में रत एकनिष्ठ भक्त ज्ञानरहित नहीं हो सकता। इसके लिए इतनी ही योग्यता चाहिए कि वह पूर्ण कृष्णभावनामृत में रहकर भक्ति सम्पन्न करता रहे।
आधुनिक दार्शनिकों का विचार है कि बिना विवेक के शुद्ध ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। उनके लिए भगवान् का उत्तर है- जो लोग शुद्धभक्ति में रत हैं, भले ही वे पर्याप्त शिक्षित न हों तथा वैदिक नियमों से पूर्णतया अवगत न हों, किन्तु भगवान् उनकी सहायता करते ही हैं, जैसा कि इस श्लोक में बताया गया है।
भगवान् अर्जुन को बताते हैं कि मात्र चिन्तन से परम सत्य भगवान् को समझ पाना असम्भव है, क्योंकि भगवान् इतने महान हैं कि कोरे मानसिक प्रयास से उन्हें न तो जाना जा सकता है, न ही प्राप्त किया जा सकता है। भले ही कोई लाखों वर्षों तक चिन्तन करता रहे, किन्तु यदि भक्ति नहीं करता, यदि वह परम सत्य का प्रेमी नहीं है, तो उसे कभी भी कृष्ण या परम सत्य समझ में नहीं आएँगे। परम सत्य, कृष्ण, केवल भक्ति से प्रसन्न होते हैं और अपनी अचिन्त्य शक्ति से वे शुद्ध भक्त के हृदय में स्वयं प्रकट हो सकते हैं। शुद्धभक्त के हृदय में तो कृष्ण निरन्तर रहते हैं और कृष्ण की उपस्थिति सूर्य के समान है, जिसके द्वारा अज्ञान का अंधकार तुरन्त दूर हो जाता है। शुद्धभक्त पर भगवान् की यही विशेष कृपा है।
करोड़ों जन्मों के भौतिक संसर्ग के कल्मष के कारण मनुष्य का हृदय भौतिकता के मल (धूलि) से आच्छादित हो जाता है, किन्तु जब मनुष्य भक्ति में लगता है और निरन्तर हरे कृष्ण का जप करता है तो यह मल तुरन्त दूर हो जाता है और उसे शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है। परम लक्ष्य विष्णु को इसी जप तथा भक्ति से प्राप्त किया जा सकता है, अन्य किसी प्रकार के मनोधर्म या तर्क द्वारा नहीं। शुद्ध भक्त जीवन की भौतिक आवश्यकताओं के लिए चिन्ता नहीं करता है, न तो उसे कोई और चिन्ता करने की आवश्यकता है, क्योंकि हृदय से अंधकार हट जाने पर भक्त की प्रेमाभक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् स्वतः सब कुछ प्रदान करते हैं। यही भगवद्गीता का उपदेश सार है।
भगवद्गीता के अध्ययन से मनुष्य भगवान् के शरणागत होकर शुद्धभक्ति में लग जाता है। जैसे ही भगवान् अपने ऊपर भार ले लेते हैं, मनुष्य सारे भौतिक प्रयासों से मुक्त हो जाता है।
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥१२॥
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥१३॥
भावार्थ : अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परम धाम परम पवित्र, परम सत्य हैं। आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं।
तात्पर्य : इन दो श्लोकों में भगवान् आधुनिक दार्शनिक को अवसर प्रदान करते हैं, क्योंकि यहाँ यह स्पष्ट है कि परमेश्वर जीवात्मा से भिन्न हैं। इस अध्याय के चार महत्त्वपूर्ण श्लोकों को सुनकर अर्जुन की सारी शंकाएँ जाती रहीं और उसने कृष्ण को भगवान् स्वीकार कर लिया। उसने तुरन्त ही उद्घोष किया "आप परब्रह्म हैं।"
इसके पूर्व कृष्ण कह चुके हैं कि वे प्रत्येक वस्तु तथा प्रत्येक प्राणी के आदि कारण हैं। प्रत्येक देवता तथा प्रत्येक मनुष्य उन पर आश्रित है। वे अज्ञानवश अपने को भगवान् से परम स्वतन्त्र मानते हैं। ऐसा अज्ञान भक्ति करने से पूरी तरह मिट जाता है। भगवान् ने पिछले श्लोक में इसकी पूरी व्याख्या की है। अब भगवत्कृपा से अर्जुन उन्हें परम सत्य रूप में स्वीकार कर रहा है, जो वैदिक आदेशों के सर्वथा अनुरूप है। ऐसा नहीं है कि परम सखा होने के कारण अर्जुन कृष्ण की चाटुकारी करते हुए उन्हें परम सत्य भगवान् कह रहा है। इन दो श्लोकों में अर्जुन जो भी कहता है, उसकी पुष्टि वैदिक सत्य द्वारा होती है। वैदिक आदेश इसकी पुष्टि करते हैं कि जो कोई परमेश्वर की भक्ति करता है, वही उन्हें समझ सकता है, अन्य कोई नहीं। इन श्लोकों में अर्जुन द्वारा कहे शब्द वैदिक आदेशों द्वारा पुष्ट होते हैं।
केन उपनिषद् में कहा गया है कि परब्रह्म प्रत्येक वस्तु के आश्रय हैं और कृष्ण पहले ही कह चुके हैं कि सारी वस्तुएँ उन्हीं पर आश्रित हैं। मुण्डक उपनिषद् में पुष्टि की गई है कि जिन परमेश्वर पर सब कुछ आश्रित है, उन्हें उनके चिन्तन में रत रहकर ही प्राप्त किया जा सकता है। कृष्ण का यह निरन्तर चिन्तन स्मरणम् है, जो भक्ति की नव विधियों में से है। भक्ति के द्वारा ही मनुष्य कृष्ण की स्थिति को समझ सकता है और इस भौतिक देह से छुटकारा पा सकता है।
वेदों में परमेश्वर को परम पवित्र माना गया है। जो व्यक्ति कृष्ण को परम पवित्र मानता है, वह समस्त पापकर्मों से शुद्ध हो जाता है। भगवान् की शरण में गये बिना पापकर्मों से शुद्धि नहीं हो पाती। अर्जुन द्वारा कृष्ण को परम पवित्र मानना वेदसम्मत है। इसकी पुष्टि नारद आदि ऋषियों द्वारा भी हुई है।
कृष्ण भगवान् हैं और मनुष्य को चाहिए कि वह निरन्तर उनका ध्यान करते हुए उनसे दिव्य सम्बन्ध स्थापित करे। वे परम अस्तित्व हैं। वे समस्त शारीरिक आवश्यकताओं तथा जन्म-मरण से मुक्त हैं। इसकी पुष्टि अर्जुन ही नहीं, अपितु सारे वेद पुराण तथा इतिहास ग्रंथ करते हैं। सारे वैदिक साहित्य में कृष्ण का ऐसा वर्णन मिलता है और भगवान् स्वयं भी चौथे अध्याय में कहते हैं, "यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, किन्तु धर्म की स्थापना के लिए इस पृथ्वी पर प्रकट होता हूँ।" वे परम पुरुष हैं, उनका कोई कारण नहीं है, क्योंकि वे समस्त कारणों के कारण हैं और सब कुछ उन्हीं से उद्भूत है। ऐसा पूर्णज्ञान केवल भगवत्कृपा से प्राप्त होता है।
यहाँ पर अर्जुन कृष्ण की कृपा से ही अपने विचार व्यक्त करता है। यदि हम भगवद्गीता को समझना चाहते हैं तो हमें इन दोनों श्लोकों के कथनों को स्वीकार करना होगा। यह परम्परा प्रणाली कहलाती है अर्थात् गुरु परम्परा को मानना। परम्परा -प्रणाली के बिना भगवद्गीता को नहीं समझा जा सकता। यह तथाकथित विद्यालयी शिक्षा द्वारा सम्भव नहीं है। दुर्भाग्यवश जिन्हें अपनी उच्च शिक्षा का घमण्ड है, वे वैदिक साहित्य के इतने प्रमाणों के होते हुए भी अपने इस दुराग्रह पर अड़े रहते हैं कि कृष्ण एक सामान्य व्यक्ति हैं।
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥१४॥
भावार्थ : हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ। हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं।
तात्पर्य : यहाँ पर अर्जुन इसकी पुष्टि करता है कि श्रद्धाहीन तथा आसुरी प्रकृति वाले लोग कृष्ण को नहीं समझ सकते। जब देवतागण तक उन्हें नहीं समझ पाते तो आधुनिक जगत् के तथाकथित विद्वानों का क्या कहना? भगवत्कृपा से अर्जुन समझ गया कि परम सत्य कृष्ण हैं और वे सम्पूर्ण हैं। अतः हमें अर्जुन के पथ का अनुसरण करना चाहिए। उसे भगवद्गीता का प्रमाण प्राप्त था। जैसा कि भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय में कहा गया है, भगवद्गीता के समझने की गुरु परम्परा का ह्रास हो चुका था, अतः कृष्ण ने अर्जुन से उसकी पुनः स्थापना की, क्योंकि वे अर्जुन को अपना परम प्रिय सखा तथा भक्त समझते थे।
अतः जैसा कि गीतोपनिषद् की भूमिका में हमने कहा है, भगवद्गीता का ज्ञान परम्परा-विधि से प्राप्त करना चाहिए। परम्परा-विधि के लुप्त होने पर उसके सूत्रपात के लिए अर्जुन को चुना गया। हमें चाहिए कि अर्जुन का हम अनुसरण करें, जिसने कृष्ण की सारी बातें जान लीं। तभी हम भगवद्गीता के सार को समझ सकेंगे और तभी कृष्ण को भगवान् रूप में जान सकेंगे।
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥१५॥
भावार्थ : हे परमपुरुष, हे सबके उद्गम, हे समस्त प्राणियों के स्वामी, हे देवों के देव, हे ब्रह्माण्ड के प्रभु! निस्सन्देह एकमात्र आप ही अपने को अपनी अन्तरंगाशक्ति से जानने वाले हैं।
तात्पर्य : परमेश्वर कृष्ण को वे ही जान सकते हैं, जो अर्जुन तथा उसके अनुयायियों की भाँति भक्ति करने के माध्यम से भगवान् के सम्पर्क में रहते हैं। आसुरी या नास्तिक प्रकृति वाले लोग कृष्ण को नहीं जान सकते। ऐसा मनोधर्म, जो भगवान् से दूर ले जाए, परम पातक है और जो कृष्ण को नहीं जानता उसे भगवद्गीता की टीका करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। भगवद्गीता कृष्ण की वाणी है और चूँकि यह कृष्ण का तत्त्वविज्ञान है, अतः इसे कृष्ण से ही समझना चाहिए, जैसा कि अर्जुन ने किया। इसे नास्तिकों से ग्रहण नहीं करना चाहिए।
श्रीमद्भागवत में (१.२.११) कहा गया है कि-
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥
परम सत्य का अनुभव तीन प्रकार से किया जाता है- निराकार ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा भगवान्। अतः परम सत्य के ज्ञान की अन्तिम अवस्था भगवान् है। हो सकता है कि सामान्य व्यक्ति, अथवा ऐसा मुक्त पुरुष भी जिसने निराकार ब्रह्म अथवा अन्तर्यामी परमात्मा का साक्षात्कार किया है, भगवान् को न समझ पाये। अतः ऐसे व्यक्तियों को चाहिए कि वे भगवान् को भगवद्गीता के श्लोकों से जानने का प्रयास करें, जिन्हें स्वयं कृष्ण ने कहा है।
कभी-कभी निर्विशेषवादी कृष्ण को भगवान् के रूप में या उनकी प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं। किन्तु अनेक मुक्त पुरुष कृष्ण को पुरुषोत्तम रूप में नहीं समझ पाते। इसीलिए अर्जुन उन्हें पुरुषोत्तम कहकर सम्बोधित करता है। इतने पर भी कुछ लोग यह नहीं समझ पाते कि कृष्ण समस्त जीवों के जनक हैं। इसीलिए अर्जुन उन्हें भूतभावन कहकर सम्बोधित करता है। यदि कोई उन्हें भूतभावन के रूप में समझ लेता है तो भी वह उन्हें परम नियन्ता के रूप में नहीं जान पाता। इसीलिए उन्हें यहाँ पर भूतेश या परम नियन्ता कहा गया है। यदि कोई भूतेश रूप में भी उन्हें समझ लेता है तो भी उन्हें समस्त देवताओं के उद्गम रूप में नहीं समझ पाता। इसीलिए उन्हें देवदेव, सभी देवताओं का पूजनीय देव, कहा गया है। यदि देवदेव रूप में भी उन्हें समझ लिया जाये तो वे प्रत्येक वस्तु के परम स्वामी के रूप में समझ में नहीं आते। इसीलिए यहाँ पर उन्हें जगत्पति कहा गया है। इस प्रकार अर्जुन की अनुभूति के आधार पर कृष्ण विषयक सत्य की स्थापना इस श्लोक में हुई है। हमें चाहिए कि कृष्ण को यथारूप में समझने के लिए हम अर्जुन के पदचिह्नों का अनुसरण करें।
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥१६॥
भावार्थ : कृपा करके विस्तारपूर्वक मुझे अपने उन दैवी ऐश्वर्यों को बतायें, जिनके द्वारा आप इन समस्त लोकों में व्याप्त हैं।
तात्पर्य : इस श्लोक से ऐसा लगता है कि अर्जुन भगवान् सम्बन्धी अपने ज्ञान से पहले से सन्तुष्ट है। कृष्ण कृपा से अर्जुन को व्यक्तिगत अनुभव, बुद्धि तथा ज्ञान और मनुष्य को इन साधनों से जो कुछ भी प्राप्त हो सकता है, वह सब प्राप्त है, तथा उसने कृष्ण को भगवान् के रूप में समझ रखा है। उसे किसी प्रकार का संशय नहीं है, तो भी वह कृष्ण से अपनी सर्वव्यापकता की व्याख्या करने के लिए अनुरोध करता है। सामान्यजन तथा विशेषरूप से निर्विशेषवादी भगवान् की सर्वव्यापकता के विषय में अधिक विचारशील रहते हैं। अतः अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछता है कि वे अपनी विभिन्न शक्तियों के द्वारा किस प्रकार सर्वव्यापी रूप में विद्यमान रहते हैं। हमें यह जानना चाहिए कि अर्जुन सामान्य लोगों के हित के लिए ही यह पूछ रहा है।
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥१७॥
भावार्थ : हे कृष्ण, हे परम योगी! मैं किस तरह आपका निरन्तर चिन्तन करूँ और आपको कैसे जानूँ? हे भगवान्! आपका स्मरण किन-किन रूपों में किया जाय?
तात्पर्य : जैसा कि पिछले अध्याय में कहा जा चुका है, भगवान् अपनी योगमाया से आच्छादित रहते हैं। केवल शरणागत भक्तजन ही उन्हें देख सकते हैं। अब अर्जुन को विश्वास हो चुका है कि उसके मित्र कृष्ण भगवान् हैं, किन्तु वह उस सामान्य विधि को जानना चाहता है, जिसके द्वारा सर्वसाधारण लोग भी उन्हें सर्वव्यापी रूप से समझ सकें। असुरों तथा नास्तिकों सहित सामान्यजन कृष्ण को नहीं जान पाते, क्योंकि भगवान् अपनी योगमाया शक्ति से आच्छादित रहते हैं। दूसरी बात यह है, कि ये प्रश्न जनसामान्य के लाभ हेतु पूछे जा रहे हैं। उच्चकोटि का भक्त केवल अपने ही ज्ञान के प्रति चिंतित नहीं रहता अपितु सारी मानव जाति के ज्ञान के लिए भी रहता है। अतः अर्जुन वैष्णव या भक्त होने के कारण अपने दयालु भाव से सामान्यजनों के लिए भगवान् के सर्वव्यापक रूप के ज्ञान का द्वार खोल रहा है। वह कृष्ण को जानबूझ कर योगिन् कहकर सम्बोधित करता है, क्योंकि वे योगमाया शक्ति के स्वामी हैं, जिसके कारण वे सामान्यजन के लिए अप्रकट या प्रकट होते हैं। सामान्यजन, जिसे कृष्ण के प्रति कोई प्रेम नहीं है, कृष्ण के विषय में निरन्तर नहीं सोच सकता। वह तो भौतिक चिन्तन करता है। अर्जुन इस संसार के भौतिकतावादी लोगों की चिन्तन-प्रवृत्ति के विषय में विचार कर रहा है। केषु केषु च भावेषु शब्द भौतिक प्रकृति के लिए प्रयुक्त हैं (भाव का अर्थ है भौतिक वस्तु)। चूँकि भौतिकतावादी लोग कृष्ण के आध्यात्मिक स्वरूप को नहीं समझ सकते, अतः उन्हें भौतिक वस्तुओं पर चित्त एकाग्र करने की तथा यह देखने का प्रयास करने की सलाह दी जाती है कि कृष्ण भौतिक रूपों में किस प्रकार प्रकट होते हैं।
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥१८॥
भावार्थ : हे जनार्दन! आप पुनः विस्तार से अपने ऐश्वर्य तथा योगशक्ति का वर्णन करें। मैं आपके विषय में सुनकर कभी तृप्त नहीं होता हूँ, क्योंकि जितना ही आपके विषय में सुनता हूँ, उतना ही आपके शब्द-अमृत को चखना चाहता हूँ।
तात्पर्य : इसी प्रकार का निवेदन नैमिषारण्य के शौनक आदि ऋषियों ने सूत गोस्वामी से किया था।
यह निवेदन इस प्रकार है-
वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमे ।
यच्छृण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे ॥
"उत्तम स्तुतियों द्वारा प्रशंसित कृष्ण की दिव्य लीलाओं का निरन्तर श्रवण करते हुए कभी तृप्ति नहीं होती। किन्तु जिन्होंने कृष्ण से अपना दिव्य सम्बन्ध स्थापित कर लिया है वे पद-पद पर भगवान् की लीलाओं के वर्णन का आनन्द लेते रहते हैं।"
(श्रीमद्भागवत १.१.१९)। अतः अर्जुन कृष्ण के विषय में और विशेष रूप से उनके सर्वव्यापी रूप के बारे में सुनना चाहता है।
जहाँ तक अमृतम् की बात है, कृष्ण सम्बन्धी कोई भी आख्यान अमृत तुल्य है और इस अमृत की अनुभूति व्यवहार से ही की जा सकती है। आधुनिक कहानियाँ, कथाएँ तथा इतिहास कृष्ण की दिव्य लीलाओं से इसलिए भिन्न हैं, क्योंकि इन संसारी कहानियों के सुनने से मन भर जाता है, किन्तु कृष्ण के विषय में सुनने से कभी थकान नहीं आती। यही कारण है कि सारे विश्व का इतिहास भगवान् के अवतारों की लीलाओं के सन्दर्भों से पटा हुआ है। हमारे पुराण विगत युगों के इतिहास हैं, जिनमें भगवान् के विविध अवतारों की लीलाओं का वर्णन है। इस प्रकार बारम्बार पढ़ने पर भी विषयवस्तु नवीन बनी रहती है।
श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥१९॥
भावार्थ : श्रीभगवान् ने कहा- हाँ, अब मैं तुमसे अपने मुख्य-मुख्य वैभवयुक्त रूपों का वर्णन करूँगा, क्योंकि हे अर्जुन! मेरा ऐश्वर्य असीम है।
तात्पर्य : कृष्ण की महानता तथा उनके ऐश्वर्य को समझ पाना सम्भव नहीं है। जीव की इन्द्रियाँ सीमित हैं, अतः उनसे कृष्ण के कार्य-कलापों की समग्रता को समझ पाना सम्भव नहीं है। तो भी भक्तजन कृष्ण को जानने का प्रयास करते हैं, किन्तु यह मानकर नहीं कि वे किसी विशेष समय में या जीवन-अवस्था में उन्हें पूरी तरह समझ सकेंगे। बल्कि कृष्ण के वृत्तान्त इतने आस्वाद्य हैं कि भक्तों को अमृत तुल्य प्रतीत होते हैं। इस प्रकार भक्तगण उनका आनन्द उठाते हैं। भगवान् के ऐश्वर्यों तथा उनकी विविध शक्तियों की चर्चा चलाने में शुद्ध भक्तों को दिव्य आनन्द मिलता है, अतः वे उनको सुनते रहना और उनकी चर्चा चलाते रहना चाहते हैं। कृष्ण जानते हैं कि जीव उनके ऐश्वर्य के विस्तार को नहीं समझ सकते, फलतः वे अपनी विभिन्न शक्तियों के प्रमुख स्वरूपों का ही वर्णन करने के लिए राजी होते हैं। प्राधान्यतः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि हम भगवान् के प्रमुख विस्तारों को ही समझ पाते हैं, जबकि उनके स्वरूप अनन्त हैं। इन सबको समझ पाना सम्भव नहीं है। इस श्लोक में प्रयुक्त विभूति शब्द उन ऐश्वर्यों का सूचक है, जिनके द्वारा भगवान् सारे विश्व का नियन्त्रण करते हैं। अमरकोश में विभूति का अर्थ विलक्षण ऐश्वर्य है।
निर्विशेषवादी या सर्वेश्वरवादी न तो भगवान् के विलक्षण ऐश्वर्यों को समझ पाता है, न उनकी दैवी शक्तियों के स्वरूपों को भौतिक जगत् में तथा वैकुण्ठ लोक में उनकी शक्तियाँ अनेक रूपों में फैली हुई हैं। अब कृष्ण उन रूपों को बताने जा रहे हैं, जो सामान्य व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से देख सकता है। इस प्रकार उनकी रंगबिरंगी शक्ति का आंशिक वर्णन किया गया है।
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥२०॥
भावार्थ : हे अर्जुन! मैं समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूँ। मैं ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अन्त हूँ।
तात्पर्य : इस श्लोक में अर्जुन को गुडाकेश कहकर सम्बोधित किया गया है जिसका अर्थ है, "निद्रा रूपी अन्धकार को जीतने वाला।" जो लोग अज्ञान रूपी अन्धकार में सोये हुए हैं, उनके लिए यह समझ पाना सम्भव नहीं है कि भगवान् किन-किन विधियों से इस लोक में तथा वैकुण्ठलोक में प्रकट होते हैं। अतः कृष्ण द्वारा अर्जुन के लिए इस प्रकार का सम्बोधन महत्त्वपूर्ण है। चूँकि अर्जुन ऐसे अन्धकार से ऊपर है, अतः भगवान् उससे विविध ऐश्वर्यों को बताने के लिए तैयार हो जाते हैं।
सर्वप्रथम कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि वे अपने मूल विस्तार के कारण समग्र दृश्यजगत की आत्मा हैं। भौतिक सृष्टि के पूर्व भगवान् अपने मूल विस्तार के द्वारा पुरुष अवतार धारण करते हैं और उन्हीं से सब कुछ आरम्भ होता है। अतः वे प्रधान महत्तत्व की आत्मा हैं। इस सृष्टि का कारण महत्तत्त्व नहीं होता, वास्तव में महाविष्णु सम्पूर्ण भौतिक शक्ति या महत्तत्व में प्रवेश करते हैं। वे आत्मा हैं। जब महाविष्णु इन प्रकटीभूत ब्रह्माण्डों में प्रवेश करते हैं तो वे प्रत्येक जीव में पुनः परमात्मा के रूप में प्रकट होते हैं। हमें ज्ञात है कि जीव का शरीर आत्मा के स्फुलिंग की उपस्थिति के कारण विद्यमान रहता है। बिना आध्यात्मिक स्फुलिंग के शरीर विकसित नहीं हो सकता। उसी प्रकार भौतिक जगत् का तब तक विकास नहीं होता, जब तक परमात्मा कृष्ण का प्रवेश नहीं हो जाता। जैसा कि सुबल उपनिषद् में कहा गया है- प्रकृत्यादि सर्वभूतान्तर्यामी सर्वशेषी च नारायणः- परमात्मा रूप में भगवान् समस्त प्रकटीभूत ब्रह्माण्डों में विद्यमान हैं।
श्रीमद्भागवत में तीनों पुरुष अवतारों का वर्णन हुआ है। सात्वत तन्त्र में भी इनका वर्णन मिलता है। विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरुषाख्यान्यथो विदुः- भगवान् इस लोक में अपने तीन स्वरूपों को प्रकट करते हैं- कारणोदकशायी विष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु तथा क्षीरोदकशायी विष्णु।
ब्रह्मसंहिता में (५.४७) महाविष्णु या कारणोदकशायी विष्णु का वर्णन मिलता है। यः कारणार्णवजले भजति स्म योगनिद्राम्- सर्वकारण कारण भगवान् कृष्ण महाविष्णु के रूप में कारणार्णव में शयन करते हैं। अतः भगवान् ही इस ब्रह्माण्ड के आदि कारण, पालक तथा समस्त शक्ति के अवसान हैं।
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥२१॥
भावार्थ : मैं आदित्यों में विष्णु, प्रकाशों में तेजस्वी सूर्य, मरुतों में मरीचि तथा नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ।
तात्पर्य : आदित्य बारह हैं, जिनमें कृष्ण प्रधान हैं। आकाश में टिमटिमाते ज्योतिपुंजों में सूर्य मुख्य है और ब्रह्मसंहिता में तो सूर्य को भगवान् का तेजस्वी नेत्र कहा गया है। अन्तरिक्ष में पचास प्रकार के वायु प्रवहमान हैं, जिनमें से वायु अधिष्ठाता मरीचि कृष्ण का प्रतिनिधि है।
नक्षत्रों में रात्रि के समय चन्द्रमा सर्वप्रमुख नक्षत्र है, अतः वह कृष्ण का प्रतिनिधि है। इस श्लोक से प्रतीत होता है कि चन्द्रमा एक नक्षत्र है, अतः आकाश में टिमटिमाने वाले तारे भी सूर्यप्रकाश को परावर्तित करते हैं। वैदिक वाङ्मय में ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत अनेक सूर्यों के सिद्धान्त को स्वीकृति प्राप्त नहीं है। सूर्य एक है और सूर्य के प्रकाश से चन्द्रमा प्रकाशित है तथा अन्य नक्षत्र भी। चूँकि भगवद्गीता से सूचित होता है कि चन्द्रमा एक नक्षत्र है, अतः टिमटिमाते तारे सूर्य न होकर चन्द्रमा के सदृश हैं।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥२२॥
भावार्थ : मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में स्वर्ग का राजा इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ तथा समस्त जीवों में जीवनीशक्ति (चेतना) हूँ।
तात्पर्य : पदार्थ तथा जीव में यह अन्तर है कि पदार्थ में जीवों के समान चेतना नहीं होती, अतः यह चेतना परम तथा शाश्वत है। पदार्थों के संयोग से चेतना उत्पन्न नहीं की जा सकती ।
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥२३॥
भावार्थ : मैं समस्त रुद्रों में शिव हूँ, यक्षों तथा राक्षसों में सम्पत्ति का देवता (कुबेर) हूँ, वसुओं में अग्नि हूँ और समस्त पर्वतों में मेरु हूँ।
तात्पर्य : ग्यारह रुद्रों में शंकर या शिव प्रमुख हैं। वे भगवान् के अवतार हैं, जिन परब्रह्माण्ड के तमोगुण का भार है। यक्षों तथा राक्षसों के नायक कुबेर हैं, जो देवताओं के कोषाध्यक्ष तथा भगवान् के प्रतिनिधि हैं। मेरु पर्वत अपनी समृद्ध प्राकृत सम्पदा के लिए विख्यात है।
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥२४॥
भावार्थ : हे अर्जुन! मुझे समस्त पुरोहितों में मुख्य पुरोहित बृहस्पति जानो। मैं ही समस्त सेनानायकों में कार्तिकेय हूँ और समस्त जलाशयों में समुद्र हूँ।
तात्पर्य : इन्द्र स्वर्ग का प्रमुख देवता है और स्वर्ग का राजा कहलाता है। जिस लोक में उसका शासन है, वह इन्द्रलोक कहलाता है। बृहस्पति राजा इन्द्र के पुरोहित हैं और चूँकि इन्द्र समस्त राजाओं का प्रधान है, इसीलिए बृहस्पति समस्त पुरोहितों में मुख्य हैं। जैसे इन्द्र सभी राजाओं के प्रमुख हैं, इसी प्रकार पार्वती तथा शिव के पुत्र स्कन्द या कार्तिकेय समस्त सेनापतियों के प्रधान हैं। समस्त जलाशयों में समुद्र सबसे बड़ा है। कृष्ण के ये स्वरूप उनकी महानता के ही सूचक हैं।
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥२५॥
भावार्थ : मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ।
तात्पर्य : ब्रह्माण्ड के प्रथम जीव ब्रह्मा ने विभिन्न योनियों के विस्तार के लिए कई पुत्र उत्पन्न किये। इनमें से भृगु सबसे शक्तिशाली मुनि थे। समस्त दिव्य ध्वनियों में ओंकार कृष्ण का रूप है। समस्त यज्ञों में हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे- का जप कृष्ण का सर्वाधिक शुद्ध रूप है। कभी-कभी पशु यज्ञ की भी संस्तुति की जाती है, किन्तु हरे कृष्ण यज्ञ में हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठता। यह सबसे सरल तथा शुद्धतम यज्ञ है। समस्त जगत में जो कुछ शुभ है, वह कृष्ण का रूप है। अतः संसार का सबसे बड़ा पर्वत हिमालय भी उन्हीं का स्वरूप है। पिछले श्लोक में मेरु का उल्लेख हुआ है, परन्तु मेरु तो कभी-कभी सचल होता है, लेकिन हिमालय कभी चल नहीं है। अतः हिमालय मेरु से बढ़कर है।
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥२६॥
भावार्थ : मैं समस्त वृक्षों में अश्वत्थ वृक्ष हूँ और देवर्षियों में नारद हूँ। मैं गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ और सिद्ध पुरुषों में कपिल मुनि हूँ।
तात्पर्य : अश्वत्थ वृक्ष सबसे ऊँचा तथा सुन्दर वृक्ष है, जिसे भारत में लोग नित्यप्रति नियमपूर्वक पूजते हैं। देवताओं में नारद विश्वभर के सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं और पूजित होते हैं। इस प्रकार वे भक्त के रूप में कृष्ण के स्वरूप हैं। गन्धर्वलोक ऐसे निवासियों से पूर्ण है, जो बहुत अच्छा गाते हैं, जिनमें से चित्ररथ सर्वश्रेष्ठ गायक है। सिद्ध पुरुषों में से देवहूति के पुत्र कपिल मुनि कृष्ण के प्रतिनिधि हैं। वे कृष्ण के अवतार माने जाते हैं। इनका दर्शन भागवत में उल्लिखित है। बाद में भी एक अन्य कपिल प्रसिद्ध हुए, किन्तु वे नास्तिक थे, अतः इन दोनों में महान अन्तर है।
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् ।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥२७॥
भावार्थ : घोड़ों में मुझे उच्चैःश्रवा जानो, जो अमृत के लिए समुद्र मन्थन के समय उत्पन्न हुआ था। गजराजों में मैं ऐरावत हूँ तथा मनुष्यों में राजा हूँ।
तात्पर्य : एक बार देवों तथा असुरों ने समुद्र मन्थन में भाग लिया। इस मन्थन से अमृत तथा विष प्राप्त हुए। विष को तो शिवजी ने पी लिया, किन्तु अमृत के साथ अनेक जीव उत्पन्न हुए, जिनमें उच्चैः श्रवा नामक घोड़ा भी था। इसी अमृत के साथ एक अन्य पशु ऐरावत नामक हाथी भी उत्पन्न हुआ था। चूँकि ये दोनों पशु अमृत के साथ उत्पन्न हुए थे, अतः इनका विशेष महत्त्व है और ये कृष्ण के प्रतिनिधि हैं।
मनुष्यों में राजा कृष्ण का प्रतिनिधि है, क्योंकि कृष्ण ब्रह्माण्ड के पालक हैं और अपने दैवी गुणों के कारण नियुक्त किये गये राजा भी अपने राज्यों के पालनकर्ता होते हैं। महाराज युधिष्ठिर, महाराज परीक्षित तथा भगवान् राम जैसे राजा अत्यन्त धर्मात्मा थे, जिन्होंने अपनी प्रजा का सदैव कल्याण सोचा। वैदिक साहित्य में राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया है। किन्तु इस युग में धर्म के ह्रास होने से राजतन्त्र का पतन हुआ और अन्ततः विनाश हो गया है। किन्तु यह समझना चाहिए कि भूतकाल में लोग धर्मात्मा राजाओं के अधीन रहकर अधिक सुखी थे।
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥२८॥
भावार्थ : मैं हथियारों में वज्र हूँ, गायों में सुरभि, सन्तति उत्पत्ति के कारणों में प्रेम का देवता कामदेव तथा सर्पों में वासुकि हूँ।
तात्पर्य : वज्र सचमुच अत्यन्त बलशाली हथियार है और यह कृष्ण की शक्ति का प्रतीक है। वैकुण्ठलोक में स्थित कृष्णलोक की गाएँ किसी भी समय दुही जा सकती हैं और उनसे जो जितना चाहे उतना दूध प्राप्त कर सकता है। निस्सन्देह इस जगत् में ऐसी गाएँ नहीं मिलतीं, किन्तु कृष्णलोक में इनके होने का उल्लेख है। भगवान् ऐसी अनेक गाएँ रखते हैं, जिन्हें सुरभि कहा जाता है। कहा जाता है कि भगवान् ऐसी गायों के चराने में व्यस्त रहते हैं। कन्दर्प काम वासना है, जिससे अच्छे पुत्र उत्पन्न होते हैं। कभी-कभी केवल इन्द्रियतृप्ति के लिए संभोग किया जाता है, किन्तु ऐसा संभोग कृष्ण का प्रतीक नहीं है। अच्छी सन्तान की उत्पत्ति के लिए किया गया संभोग कन्दर्प कहलाता है और वह कृष्ण का प्रतिनिधि होता है।
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥२९॥
भावार्थ : अनेक फणों वाले नागों में मैं अनन्त हूँ और जलचरों में वरुणदेव हूँ। मैं पितरों में अर्यमा हूँ तथा नियमों के निर्वाहकों में मैं मृत्युराज यम हूँ।
तात्पर्य : अनेक फणों वाले नागों में अनन्त सबसे प्रधान हैं और इसी प्रकार जलचरों में वरुण देव प्रधान हैं। ये दोनों कृष्ण का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी प्रकार पितृलोक के अधिष्ठाता अर्यमा हैं, जो कृष्ण के प्रतिनिधि हैं। ऐसे अनेक जीव हैं, जो दुष्टों को दण्ड देते हैं, किन्तु इनमें यम प्रमुख हैं। यम पृथ्वीलोक के निकटवर्ती लोक में रहते हैं। मृत्यु के बाद पापी लोगों को वहाँ ले जाया जाता है और यम उन्हें तरह-तरह का दण्ड देने की व्यवस्था करते हैं।
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥३०॥
भावार्थ : दैत्यों में मैं भक्तराज प्रह्लाद हूँ, दमन करने वालों में काल हूँ, पशुओं में सिंह हूँ तथा पक्षियों में गरुड़ हूँ।
तात्पर्य : दिति तथा अदिति दो बहनें थीं। अदिति के पुत्र आदित्य कहलाते हैं और दिति के दैत्य सारे आदित्य भगवद्भक्त निकले और सारे दैत्य नास्तिक। यद्यपि प्रह्लाद का जन्म दैत्य कुल में हुआ था, किन्तु वे बचपन से ही परम भक्त थे। अपनी भक्ति तथा दैवी गुण के कारण वे कृष्ण के प्रतिनिधि माने जाते हैं।
दमन के अनेक नियम हैं, किन्तु काल इस संसार की हर वस्तु को क्षीण कर देता है, अतः वह कृष्ण का प्रतिनिधित्व कर रहा है। पशुओं में सिंह सबसे शक्तिशाली तथा हिंस्र होता है और पक्षियों के लाखों प्रकारों में भगवान् विष्णु का वाहन गरुड़ सबसे महान है।
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥३१॥
भावार्थ : समस्त पवित्र करने वालों में मैं वायु हूँ, शस्त्रधारियों में राम, मछलियों में मगर तथा नदियों में गंगा हूँ।
तात्पर्य : समस्त जलचरों में मगर सबसे बड़ा और मनुष्य के लिए सबसे घातक होता है। अतः मगर कृष्ण का प्रतिनिधित्व करता है।
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥३२॥
भावार्थ : हे अर्जुन! मैं समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अन्त हूँ। मैं समस्त विद्याओं में अध्यात्म विद्या हूँ और तर्कशास्त्रियों में मैं निर्णायक सत्य हूँ।
तात्पर्य : सृष्टियों में सर्वप्रथम समस्त भौतिक तत्त्वों की सृष्टि की जाती है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, यह दृश्यजगत महाविष्णु 'गर्भोदकशायी विष्णु तथा क्षीरोदकशायी विष्णु द्वारा उत्पन्न और संचालित है। बाद में इसका संहार शिवजी द्वारा किया जाता है। ब्रह्मा गौण स्रष्टा हैं। सृजन, पालन तथा संहार करने वाले ये सारे अधिकारी परमेश्वर के भौतिक गुणों के अवतार हैं। अतः वे ही समस्त सृष्टि के आदि, मध्य तथा अन्त हैं।
उच्च विद्या के लिए ज्ञान के अनेक ग्रंथ हैं, यथा चारों वेद, उनके छहों वेदांग, वेदान्त सूत्र, तर्क ग्रंथ, धर्मग्रंथ पुराण इस प्रकार कुल चौदह प्रकार के ग्रंथ हैं। इनमें से अध्यात्मविद्या सम्बन्धी ग्रंथ, विशेष रूप से वेदान्त सूत्र, कृष्ण का स्वरूप है।
तर्कशास्त्रियों में विभिन्न प्रकार के तर्क होते रहते हैं। प्रमाण द्वारा तर्क की पुष्टि, जिससे विपक्ष का भी समर्थन हो, जल्प कहलाता है। प्रतिद्वन्द्वी को हराने का प्रयास मात्र वितण्डा है, किन्तु वास्तविक निर्णय वाद कहलाता है। यह निर्णयात्मक सत्य कृष्ण का स्वरूप है।
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥३३॥
भावार्थ : अक्षरों में मैं अकार हूँ और समासों में द्वन्द्व समास हूँ। मैं शाश्वत काल भी हूँ और स्रष्टाओं में ब्रह्मा हूँ।
तात्पर्य : अ-कार, अर्थात् संस्कृत अक्षर माला का प्रथम अक्षर (अ) वैदिक साहित्य का शुभारम्भ है। अकार के बिना कोई स्वर उच्चरित नहीं हो सकता, इसीलिए यह आदि स्वर है। संस्कृत में कई तरह के सामासिक शब्द होते हैं, जिनमें से राम कृष्ण जैसे दोहरे शब्द द्वन्द्व कहलाते हैं। इस समास में राम तथा कृष्ण अपने उसी रूप में हैं, अतः यह समास द्वन्द्व कहलाता है।
समस्त मारने वालों में काल सर्वोपरि है, क्योंकि यह सबों को मारता है। काल कृष्णस्वरूप है, क्योंकि समय आने पर प्रलयाग्नि से सब कुछ लय हो जाएगा। सृजन करने वाले जीवों में चतुर्मुख ब्रह्मा प्रधान हैं, अतः वे 'भगवान् कृष्ण के प्रतीक हैं।
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥३४॥
भावार्थ : मैं सर्वभक्षी मृत्यु हूँ और मैं ही आगे होने वालों को उत्पन्न करने वाला हूँ। स्त्रियों मैं कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेघा, धृति तथा क्षमा हूँ।
तात्पर्य : ज्योंही मनुष्य जन्म लेता है, वह क्षण-क्षण मरता रहता है। इस प्रकार मृत्यु समस्त जीवों का हर क्षण भक्षण करती रहती है, किन्तु अन्तिम आघात मृत्यु कहलाता है। यह मृत्यु कृष्ण ही है। जहाँ तक भावी विकास का सम्बन्ध है, सारे जीवों में छह परिवर्तन होते हैं- वे जन्मते हैं, बढ़ते हैं, कुछ काल तक संसार में रहते हैं, सन्तान उत्पन्न करते हैं, क्षीण होते हैं और अन्त में समाप्त हो जाते हैं। इन छहों परिवर्तनों में पहला गर्भ से मुक्ति है और यह कृष्ण है। प्रथम उत्पत्ति ही भावी कार्यों का शुभारम्भ है।
यहाँ जिन सात ऐश्वर्यों का उल्लेख है, वे स्त्रीवाचक हैं- कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति तथा क्षमा। यदि किसी व्यक्ति के पास ये सभी, या इनमें से कुछ ही होते हैं, तो वह यशस्वी होता है। यदि कोई मनुष्य धर्मात्मा है, तो वह यशस्वी होता है। संस्कृत पूर्ण भाषा है, अतः यह अत्यन्त यशस्विनी है। यदि कोई पढ़ने के बाद विषय को स्मरण रख सकता है तो उसे उत्तम स्मृति मिली होती है। केवल अनेक ग्रंथों को पढ़ना पर्याप्त नहीं होता, किन्तु उन्हें समझकर आवश्यकता पड़ने पर उनका प्रयोग मेधा या बुद्धि कहलाती है। यह दूसरा ऐश्वर्य है। अस्थिरता पर विजय पाना धृति या दृढ़ता है। पूर्णतया योग्य होकर यदि कोई विनीत भी हो और सुख तथा दुःख में समभाव से रहे तो यह ऐश्वर्य क्षमा कहलाता है।
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥३५॥
भावार्थ : मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और छन्दों में गायत्री हूँ। समस्त महीनों मैं मैं मार्गशीर्ष (अगहन) तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलाने वाली वसन्त ऋतु हूँ।
तात्पर्य : जैसा कि भगवान् स्वयं बता चुके हैं, वे समस्त वेदों में सामवेद हैं। सामवेद विभिन्न देवताओं द्वारा गाये जाने वाले गीतों का संग्रह है। इन गीतों में से एक बृहत्साम है, जिसकी ध्वनि सुमधुर है और जो अर्धरात्रि में गाया जाता है।
संस्कृत में काव्य के निश्चित विधान हैं। इसमें लय तथा ताल बहुत सी आधुनिक कविता की तरह मनमाने नहीं होते। ऐसे नियमित काव्य में गायत्री मन्त्र, जिसका जप केवल सुपात्र ब्राह्मणों द्वारा ही होता है, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। गायत्री मन्त्र का उल्लेख श्रीमद्भागवत में भी हुआ है। चूँकि गायत्री मन्त्र विशेषतया ईश्वर- साक्षात्कार के ही निमित्त है, इसीलिए यह परमेश्वर का स्वरूप है। यह मन्त्र अध्यात्म में उन्नत लोगों के लिए है। जब इसका जप करने में उन्हें सफलता मिल जाती है, तो वे भगवान् के दिव्य धाम में प्रविष्ट होते हैं।
गायत्री मन्त्र के जप के लिए मनुष्य को पहले सिद्ध पुरुष के गुण या भौतिक प्रकृति के नियमों के अनुसार सात्त्विक गुण प्राप्त करने होते हैं। वैदिक सभ्यता में गायत्री मन्त्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और उसे ब्रह्म का नाद अवतार माना जाता है। ब्रह्मा इसके गुरु हैं और शिष्य परम्परा द्वारा यह उनसे आगे बढ़ता रहा है।
मासों में अगहन (मार्गशीर्ष) मास सर्वोत्तम माना जाता है क्योंकि भारत में इस मास में खेतों से अन्न एकत्र किया जाता है और लोग अत्यन्त प्रसन्न रहते हैं। निस्सन्देह वसन्त ऐसी ऋतु है, जिसका विश्वभर में सम्मान होता है क्योंकि यह न तो बहुत गर्म रहती है, न सर्द और इसमें वृक्षों में फूल आते हैं। वसन्त में कृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित अनेक उत्सव भी मनाये जाते हैं, अत: इसे समस्त ऋतुओं सर्वाधिक उल्लासपूर्ण माना जाता है और यह भगवान् कृष्ण की प्रतिनिधि है।
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम ॥३६॥
भावार्थ : मैं छलियों में जुआ हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ। मैं विजय हूँ, साहस हूँ और बलवानों का बल हूँ।
तात्पर्य : ब्रह्माण्ड में अनेक प्रकार के छलियाँ हैं। समस्त छल-कपट कर्मों में द्यूत-क्रीड़ा (जुआ) सर्वोपरि है और यह कृष्ण का प्रतीक है। परमेश्वर के रूप में कृष्ण किसी भी सामान्य पुरुष की अपेक्षा अधिक कपटी (छल करने वाले) हो सकते हैं। यदि कृष्ण किसी से छल करने की सोच लेते हैं, तो कोई उनसे पार नहीं पा सकता। उनकी महानता एकांगी न होकर सर्वांगी है।
वे विजयी पुरुषों की विजय हैं। वे तेजस्वियों के तेज हैं। साहसी तथा कर्मठों में वे सर्वाधिक साहसी तथा कर्मठ हैं। वे बलवानों में सर्वाधिक बलवान हैं। जब कृष्ण इस धराधाम में विद्यमान थे तो कोई भी उन्हें बल में हरा नहीं सकता था। यहाँ तक कि अपने बाल्यकाल में उन्होंने गोवर्धन पर्वत उठा लिया था। उन्हें न तो कोई छल में हरा सकता है, न तेज में, न विजय में, न साहस तथा बल में।
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥३७॥
भावार्थ : मैं वृष्णिवंशियों में वासुदेव और पाण्डवों में अर्जुन हूँ। मैं समस्त मुनियों में व्यास तथा महान विचारकों में उशना हूँ।
तात्पर्य : कृष्ण आदि भगवान् हैं और बलदेव कृष्ण के निकटतम अंश विस्तार हैं। कृष्ण तथा बलदेव दोनों ही वसुदेव के पुत्र रूप में उत्पन्न हुए, अतः दोनों को वासुदेव कहा जा सकता है। दूसरी दृष्टि से चूँकि कृष्ण कभी वृन्दावन नहीं त्यागते, अतः उनके जितने भी रूप अन्यत्र पाये जाते हैं, वे उनके विस्तार हैं। वासुदेव कृष्ण के निकटतम अंश - विस्तार हैं, अतः वासुदेव कृष्ण से भिन्न नहीं हैं। अत: इस श्लोक में आगत वासुदेव शब्द का अर्थ बलदेव या बलराम माना जाना चाहिए क्योंकि वे समस्त अवतारों के उद्गम हैं और इस प्रकार वे वासुदेव के एकमात्र उद्गम हैं। भगवान् के निकटतम अंशों को स्वांश (व्यक्तिगत या स्वकीय अंश) कहते हैं और अन्य प्रकार के भी अंश हैं, जो विभिन्नांश (पृथकीकृत अंश ) कहलाते हैं।
पाण्डुपुत्रों में अर्जुन धनञ्जय नाम से विख्यात है। वह समस्त पुरुषों में श्रेष्ठतम है, अतः कृष्णस्वरूप है। मुनियों अर्थात् वैदिक ज्ञान में पटु विद्वानों में व्यास सबसे बड़े हैं, क्योंकि उन्होंने कलियुग में लोगों को समझाने के लिए वैदिक ज्ञान को अनेक प्रकार से प्रस्तुत किया। और व्यास कृष्ण के एक अवतार भी माने जाते हैं। अतः वे कृष्णस्वरूप हैं। कविगण किसी विषय पर गम्भीरता से विचार करने में समर्थ होते हैं। कवियों में उशना अर्थात् शुक्राचार्य असुरों के गुरु थे, वे अत्यधिक बुद्धिमान तथा दूरदर्शी राजनेता थे। इस प्रकार शुक्राचार्य कृष्ण के ऐश्वर्य के दूसरे स्वरूप हैं।
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥३८॥
भावार्थ : अराजकता को दमन करने वाले समस्त साधनों में से मैं दण्ड हूँ और जो विजय के आकांक्षी हैं, उनकी मैं नीति हूँ। रहस्यों में मैं मौन हूँ और बुद्धिमानों में ज्ञान हूँ।
तात्पर्य : वैसे तो दमन के अनेक साधन हैं, किन्तु इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है दुष्टों का नाश। जब दुष्टों को दण्डित किया जाता है, तो दण्ड देने वाला कृष्णस्वरूप होता है। किसी भी क्षेत्र में विजय की आकांक्षा करने वाले में नीति की ही विजय होती है। सुनने, सोचने तथा ध्यान करने की गोपनीय क्रियाओं में मौन धारण ही सबसे महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मौन रहने से जल्दी उन्नति मिलती है। ज्ञानी व्यक्ति वह है, जो पदार्थ तथा आत्मा में, भगवान् की परा तथा अपरा शक्तियों में भेद कर सके। ऐसा ज्ञान साक्षात् कृष्ण है।
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥३९॥
भावार्थ : यही नहीं, हे अर्जुन! मैं समस्त सृष्टि का जनक बीज हूँ। ऐसा चर तथा अचर कोई भी प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना रह सके।
तात्पर्य : प्रत्येक वस्तु का कारण होता है और इस सृष्टि का कारण या बीज कृष्ण हैं। कृष्ण की शक्ति के बिना कुछ भी नहीं रह सकता, अतः उन्हें सर्वशक्तिमान कहा जाता है। उनकी शक्ति के बिना चर तथा अचर, किसी भी जीव का अस्तित्व नहीं रह सकता। जो कुछ कृष्ण की शक्ति पर आधारित नहीं है, वह माया है अर्थात् "वह जो नहीं है।"
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
एष तद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥४०॥
भावार्थ : हे परन्तप! मेरी दैवी विभूतियों का अन्त नहीं है। मैंने तुमसे जो कुछ कहा, वह तो मेरी अनन्त विभूतियों का संकेत मात्र है।
तात्पर्य : जैसा कि वैदिक साहित्य में कहा गया है यद्यपि परमेश्वर की शक्तियाँ तथा विभूतियाँ अनेक प्रकार से जानी जाती हैं, किन्तु इन विभूतियों का कोई अन्त नहीं है, अतएव समस्त विभूतियों तथा शक्तियों का वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है। अर्जुन की जिज्ञासा को शान्त करने के लिए केवल थोड़े से उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं।
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥४१॥
भावार्थ : तुम जान लो कि सारा ऐश्वर्य, सौन्दर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत हैं।
तात्पर्य : किसी भी तेजस्वी या सुन्दर सृष्टि को, चाहे वह अध्यात्म जगत में हो या इस जगत में, कृष्ण की विभूति का अंश रूप ही मानना चाहिए। किसी भी अलौकिक तेजयुक्त वस्तु को कृष्ण की विभूति समझना चाहिए।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥४२॥
भावार्थ : किन्तु हे अर्जुन! इस सारे विशद ज्ञान की आवश्यकता क्या है? मैं तो अपने एक अंश मात्र से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर इसको धारण करता हूँ।
तात्पर्य : परमात्मा के रूप में ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुओं में प्रवेश कर जाने के कारण परमेश्वर का सारे भौतिक जगत में प्रतिनिधित्व है। भगवान् यहाँ पर अर्जुन को बताते हैं कि यह जानने की कोई सार्थकता नहीं है कि सारी वस्तुएँ किस प्रकार अपने पृथक-पृथक ऐश्वर्य तथा उत्कर्ष में स्थित हैं। उसे इतना ही जान लेना चाहिए कि सारी वस्तुओं का अस्तित्व इसलिए है, क्योंकि कृष्ण उनमें परमात्मा रूप में प्रविष्ट हैं। ब्रह्मा जैसे विराट जीव से लेकर एक क्षुद्र चींटी तक इसीलिए विद्यमान हैं, क्योंकि भगवान् उन सबमें प्रविष्ट होकर उनका पालन करते हैं।
एक ऐसी धार्मिक संस्था (मिशन) भी है, जो यह निरन्तर प्रचार करती है कि किसी भी देवता की पूजा करने से भगवान् या परम लक्ष्य की प्राप्ति होगी। किन्तु यहाँ पर देवताओं की पूजा को पूर्णतया निरुत्साहित किया गया है, क्योंकि ब्रह्मा तथा शिव जैसे महानतम देवता भी परमेश्वर की विभूति के अंशमात्र हैं। वे समस्त उत्पन्न जीवों के उद्गम हैं और उनसे बढ़कर कोई भी नहीं है। वे असमोर्ध्व हैं, जिसका अर्थ है कि न तो कोई उनसे श्रेष्ठ है, न उनके तुल्य। पद्मपुराण में कहा गया है कि जो लोग भगवान् कृष्ण को देवताओं की कोटि में चाहे वे ब्रह्मा या शिव ही क्यों न हों, मानते हैं वे पाखण्डी हो जाते हैं, किन्तु यदि कोई ध्यानपूर्वक कृष्ण की विभूतियों एवं उनकी शक्ति के अंशों का अध्ययन करता है तो वह बिना किसी संशय के भगवान् कृष्ण की स्थिति को समझ सकता है और अविचल भाव से कृष्ण की पूजा में स्थिर हो सकता है। भगवान् अपने अंश के विस्तार से परमात्मा रूप में सर्वव्यापी हैं, जो हर विद्यमान वस्तु में प्रवेश करता है।
अतः शुद्धभक्त पूर्णभक्ति में कृष्णभावनामृत में अपने मनों को एकाग्र करते हैं। अतएव वे नित्य दिव्य पद में स्थित रहते हैं। इस अध्याय के श्लोक ८ से ११ तक कृष्ण की भक्ति तथा पूजा का स्पष्ट संकेत है। शुद्धभक्ति की यही विधि है। इस अध्याय में इसकी भलीभाँति व्याख्या की गई है कि मनुष्य भगवान् की संगति में किस प्रकार चरम भक्ति-सिद्धि प्राप्त कर सकता है। कृष्ण-परम्परा के महान आचार्य श्रील बलदेव विद्याभूषण इस अध्याय की टीका का समापन इस कथन से करते हैं-
यच्छक्तिलेशात्सूर्याद्या भवन्त्यत्युग्रतेजसः ।
यदंशेन धृतं विश्वं स कृष्णो दशमेऽर्च्यते ॥
प्रबल सूर्य भी कृष्ण की शक्ति से अपनी शक्ति प्राप्त करता है और सारे संसार का पालन कृष्ण के एक लघु अंश द्वारा होता है। अतः श्रीकृष्ण पूजनीय हैं।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के दसवें अध्याय "श्रीभगवान् का ऐश्वर्य" का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ
Published by Nag Mandir Jathere Pathania on 24-March-2025, 07:10 am
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